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222/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
प्रतिपादित है। तेरहवें प्रकरण में जीर्णोद्धार विधि का उल्लेख हुआ है। चौदहवें प्रकरण में प्रतिष्ठोपयोगी मुद्रा विधियों का निरूपण किया गया है। पन्द्रहवें प्रकरण में प्रायश्चित्त विधि कही गई है। सोलह से उन्नीस तक के प्रकरणों में अहंदादि का वर्णादि क्रम कहा गया है। इसके साथ ही तीर्थंकरों की जन्म राशि, तीर्थंकरों के नक्षत्र, यक्ष-यक्षिणी का स्वरूप, श्रुतदेवता-सोलह विद्या देवियों, दशदिक्पालों, नवग्रहों, ब्रह्मशान्तियक्ष आदि क्षेत्रपालों का स्वरूप एवं उनके आयुधादि का वर्णन किया गया है।
निष्कर्षतः यह विद्वद् कृति सिद्ध होती है। इसका अध्ययन विस्तार के साथ किया जाये तो इसमें से कई नवीन एवं तथ्यमूलक बातें देखने को मिल सकती है। यह रचना संस्कृत गद्य प्रधान होने पर भी इसमें स्वरचित एवं उद्धृत कई प्राकृत पद्य भी उल्लिखित हैं। पंचसूत्र
यह अज्ञातकर्तृक रचना है। इसमें पाँच सूत्र है यह बात इस कृति के नाम से ही स्पष्ट हो जाती है। यह कृति दीक्षाविधि से सम्बन्धित है। इसमें विषयानुक्रम इस प्रकार है- १. पाप का प्रतिघात और गुण के बीज का आधान २. श्रमण धर्म की परिभावना ३. प्रव्रज्या ग्रहण करने की विधि ४. प्रव्रज्या का पालन और ५. प्रव्रज्या का फल-मोक्ष।
प्रथम सूत्र में अरिहन्त आदि चार शरण का स्वीकार और सुकृत की अनुमोदना करने का वर्णन है। दूसरे सूत्र में अधर्म-मित्रों का त्याग, कल्याण मित्रों का स्वीकार तथा लोकविरुद्ध आचरणों का परिहार इत्यादि बातें कही गई हैं। तीसरे सूत्र में दीक्षा के लिए माता-पिता की अनुज्ञा कैसे प्राप्त करनी चाहिए यह दिखलाया है। चौथे सूत्र में आठ प्रवचन-माता का पालन, भाव चिकित्सा के लिए प्रयास तथा लोक संज्ञा का त्याग इन बातों का निरूपण है। पाँचवे सूत्र में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन है। टीकाएँ- इस पर हरिभद्रसरि ने ८५० श्लोक परिमाण एक टीका लिखी है। न्चामाचार्य यशोविजयनी ने इरा अन्य को 'पंचसूत्री' कहकर टीका रची है। इस पर मुनिचन्द्रसूरि एवं किसी अज्ञात ने एक-एक अवचूरि लिखी है। पधारो पौषध करीये
यह पौषध सम्बन्धी ग्रन्थों के आधार से संकलित की गई विशिष्ट कृति है। यह गुजराती गद्य में निबद्ध है। इसमें पौषधव्रत के योग्य क्रमशः निम्नलिखित विधियाँ दी गई हैं- १. पौषध ग्रहण करने की विधि २. प्रातःकालीन प्रतिलेखना
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