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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/623
चन्द्रमा की वृद्धि-हानि का वर्णन है। चौदहवें में ज्योत्स्ना का वर्णन हैं। पन्द्रहवें में चन्द्र-सूर्य आदि की गति के तारतम्य का उल्लेख है। सोलहवें में ज्योत्स्ना का लक्षण प्रतिपादित है। सत्रहवें में चन्द्र आदि के च्यवन और उपपात का वर्णन है।
अठारहवें में सर्वलोक में चन्द्र-सर्य की ऊँचाई का वर्णन है। उन्नीसवें में चन्द्र-सूर्य की संख्या का वर्णन है। बीसवें में चन्द्र आदि को अनुभाव का वर्णन है। होरामकरन्द
इस ग्रन्थ' की रचना आचार्य गुणाकरसूरिने की है। इसका रचना समय अनुमानतः १५ वीं शताब्दी है। इस ग्रन्थ में ३१ अध्याय हैं वे प्रायः सभी ज्योतिष विषयक हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. राशिप्रभेद, २. ग्रहस्वरूपबल निरूपण, ३. वियोनिजन्म, ४. निषेक, ५. जन्मविधि, ६. रिष्ट, ७. रिष्टभंग, ८. सर्वग्रहारिष्टभंग, ६. आयुर्दा, १०.........? ११. अन्तर्दशा, १२. अष्टकवर्ग, १३. कर्मजीव, १४. राजयोग, १५. नाभसयोग, १६. वोसिवेस्युभयचारी-योग, १७. चन्द्रयोग, १८. ग्रहप्रव्रज्यायोग, १६. देवनक्षत्रफल, २०. चन्द्रराशिफल, २१. सूर्यादिराशिफल, २२. रश्मिचिन्ता, २३. इष्ट्यादिफल, २४. भावफल, २५. आश्रयाध्याय, २६. कारक, २७. अनिष्ट, २८. स्त्रीजातक, २६. निर्याण ३०. द्रेष्काणस्वरूप, ३१. प्रश्नजातका यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। हायनसुन्दर
यह ज्योतिष विषयक ग्रन्थ आचार्य पद्मसुन्दरसूरि ने रचा है।' त्रैलोक्यप्रकाश
आचार्य देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री हेमप्रभसूरि ने यह ग्रन्थ वि.सं. १३०५ में रचा है। ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ का नाम 'त्रैलोक्यप्रकाश' क्यों रखा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि -
त्रीन् कालान् त्रिषु लोकेषु यस्माद् बुद्धिः प्रकाशते।
तत् त्रैलोक्यप्रकाशाख्यं ध्यात्वा शास्त्रं प्रकाश्यते।। यह कृति १२५० श्लोक परिमाण की है। इसमें ताजिक-विषयक चर्चा हुई है। इस ग्रन्थ में ज्योतिष-योगों के शुभाशुभ फलों के विषय में विचार किया गया है और मानवजीवन सम्बन्धी अनेक विषयों का फलादेश बताया गया है। इसमें मुथशिल, मचकूल, शूर्लावउस्तरलाव आदि संज्ञाओं के प्रयोग मिलते हैं जो मुस्लिम प्रभाव की
' इसकी ४१ पत्रों की प्रति ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर अहमदबाद के संग्रह में है।
इसकी प्रति बीकानेर स्थित अनूप संस्कृत लायब्रेरी के संग्रह में है।
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