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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/27 • इन शुभ आराधनाओं से मानसिक विकार दूर होते हैं विषय-वासना, कषाय-कामना आदि के भाव मन्दतर होते चले जाते हैं और क्रमशः संसारी आत्मा मुक्तात्मा की दिशा में प्रयाण कर लेती है। इससे शरीर, मन और आत्मा तीनों ही निर्मल बनते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों के विविध प्रकारों में सामायिक विधान के द्वारा राग-द्वेष की परिणतियाँ न्यून होती हैं, वैरभाव की परम्परा का अन्त होता है और मैत्री, प्रमोद, वात्सल्य आदि आत्मिक गुण प्रगट होते हैं। प्रतिक्रमण के द्वारा आत्मा और मन छल, कपट, माया आदि दोषों से मुक्त होती हैं, क्योंकि प्रतिक्रमण आलोचना और प्रायश्चित रूप होता है और वह आलोचना, छल-कपट रहित साधक ही कर सकता है। प्रतिक्रमण के विविध आसनों का व्यवहारिक प्रयोग शारीरिक दृष्टि से पाँव, घुटने, कमर, गर्दन, मस्तिष्क, उदर आदि संबंधी अनेक रोगों को दूर करने में लाभदायी होता है। • प्रतिक्रमण करते समय मुख्यतः पाप की आलोचना, दिन, पक्ष, मास आदि में किये गये पापों का स्मरण और पुनः पापकृत्य न करने का संकल्प आदि किया जाता है इस प्रकार की संकल्पना से मन आत्मस्थ और एकाग्र हो जाता है तथा मन की एकाग्रता से चिन्ता, टेंशन, डिप्रेशन आदि मानसिक रोग भी दूर हो जाते हैं वन्दन क्रिया के माध्यम से नम्रता, सरलता, विवेकशीलता आदि गुणों का प्रादुर्भाव होता है। अहंकार बुद्धि व आग्रह बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिन प्रतिमाओं के एवं विशुद्ध चरित्रात्माओं के विधिवत् दर्शन करने से मन-वचन-काया तीनों योग पवित्र बनते हैं और भी पूर्वोक्त गुणादि प्रगट होते हैं। प्रत्याख्यान विधि का पालन करने से मानसिक एवं शारीरिक तृष्णाएँ मन्द होती हैं, इससे सभी प्रकार के दुखों का अंत होने लगता है चूंकि दुख का मुख्य कारण व्यक्ति की तृष्णा व आकांक्षा है। तपस्या के द्वारा शरीर के अनावश्यक तत्त्व (रोगाणु आदि) निष्कासित होने लगते हैं उससे शरीर सक्रिय स्वस्थ एवं निरोगी बनता हैं। शरीर की स्वस्थता से मन स्वस्थ बनता हैं और जहाँ शरीर एवं मन दोनों स्वस्थ होते हैं वहाँ आत्मासाधना भी सम्यक् दिशा की ओर गतिशील बनती है। इस प्रकार तप साधना मन-वचन-काया तीनों योगों को शुभ क्रिया की ओर प्रवृत्त करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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