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28 / जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
यही शुभप्रवृत्ति परम्परा से मोक्ष का कारण बनती है।
• प्रार्थना करने से शरीर हल्का होता है विचारों की पवित्रता बढ़ती है। आभामण्डल निर्दोष एवं निर्विकार होने लगता है इस तरह अन्य अनेक प्रकार के लाभ होते हैं।
• मंत्रजाप, स्तुति, ध्यान आदि क्रियाओं के द्वारा त्रियोग की शुद्धि होती है । मन एकाग्र बनता है वचन का संयम बढ़ता है, काया स्थिर बनती हैं। इससे कलह- द्वेष आदि की संभावनाएँ भी प्रायः समाप्त होने लगती और जीवन शांति और आनन्द के हिलोरें से तरंगित हो उठता है।
आलोचना और प्रायश्चित्त विधि के द्वारा त्रियोग की शुद्धि ही नहीं, प्रत्युत अन्तरंग के परिणाम निश्छल (निष्कपट), निर्विकार और निर्दोष बन जाते हैं और यही साधना की उच्चतम भूमिका है। इस भूमिका तक पहुँचने के बाद यह आत्मा अतिशीघ्र जन्म-मरण के दुखों का अन्त कर देती है । जैन विधि-विधान के सम्बन्ध में शोध की आवश्यकता
जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। जैन साधना का मूल लक्ष्य आत्म विशुद्धि है। उसकी साधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक जोर दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोकमंगल या लोककल्याण का कोई स्थान नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष एकांकी जीवन अधिक उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी हैं कि १२ वर्षों तक एकांकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवनभर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। यही बात जैन विधि-विधानों के विषय में भी लागू होती है। उनका मुख्य संबंध वैयक्तिक जीवन से है किन्तु उनकी फलश्रुति हमारे सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करती है।
वस्तुतः जैने विधि-विधान साधना पक्ष के आवश्यक अंग है और प्रत्येक साधना विधिवत् की जाने पर ही सफल होती है। यह जानने योग्य हैं कि जैन परम्परा की साधनाएँ वैयक्तिक कल्याण के साथ-साथ सामाजिक कल्याण से जुड़ी हुई है। जैन मुनि वैयक्तिक लाभ की दृष्टि से यन्त्र - मन्त्र की साधना नहीं कर सकता है, किन्तु सामाजिक - संघहित में उनका प्रयोग करने की छूट है। हम इस प्रसंग को यहीं विराम देते हैं, क्योंकि उक्त विवेचन के आधार पर यह सुनिश्चित
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