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114/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
पिंडविशुद्धिप्रकरण
‘पिंडविशुद्धिप्रकरण' नामक यह रचना' नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि की है। यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत पद्यों में रचित है। इसमें कुल १०३ गाथाएँ हैं।
यह ग्रन्थ मुनि जीवन की आहार विधि से सम्बन्धित ग्रन्थों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस कृति में मुख्य रूप से आहार ग्रहण करने की विधि, आहार दान की विधि, आहार करने की विधि और उसमें लगने वाले दोषों के भेद-प्रभेदों की विस्तार से व्याख्या की गई हैं। इस ग्रन्थ की प्रथम गाथा में सभी जिनश्वर भगवन्तों को नमस्कार करके भावमंगल किया गया है। दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि मोक्षार्थियों के लिए पिंड की विशुद्धि क्यों आवश्यक है। उसके बाद ३ से ५७ तक की ५४ गाथाओं में गृहस्थ के द्वारा आहार तैयार करने में लगने वाले सोलह उद्गम दोषों का विवेचन किया गया है। ये दोष गृहस्थ के निमित्त से लगते हैं। तत्पश्चात् ५८ से ७५ तक की १८ गाथाओं में श्रमण के द्वारा आहार ग्रहण करने की विधि में लगने वाले सोलह उत्पादना संबंधी दोषों का निरूपण किया गया है। ७६ से ६३ तक की १८ गाथाओं में साधु के द्वारा आहार ग्रहण करने एवं गृहस्थ के द्वारा आहार देने की विधि में युगपत् रूप से लगने वाले दस ग्रहणैषणा सम्बन्धी दोषों पर विचार किया गया है। इसके बाद ६४ से १०२ तक की गाथाओं में साधु द्वारा आहार करने की विधि में लगने वाले पाँच मांडली संबंधी दोषों का उल्लेख किया गया है।
इस ग्रन्थ की अन्तिम गाथा में रचनाकार ने स्वयं अपना नाम एवं प्रकरण की रचना का प्रयोजन बतलाया है। इसके साथ ही गीतार्थ मुनियों से यह प्रार्थना की गई है कि - मेरे द्वारा कुछ भी जिनाज्ञा से विपरीत लिखा गया हो तो विद्वज्जन उसका शुद्धिकरण करके पढ़े और उस त्रुटि के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। यह रचना लगभग बारहवीं शती के उत्तरार्ध की मानी जाती है। इस ग्रन्थ पर कई टीकाएँ एवं अवचूरियाँ लिखी गई हैं। कुछ प्रसिद्ध कृतियाँ निम्न हैं - गणधरसार्द्धशतक, वीरचैत्यप्रशस्ति, सूक्ष्मार्थविचार-सारोद्धार, श्रृंगारशतक, आगमिकवस्तुविचारसार, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक (षडशीति), संघपट्टक आदि।
' यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित वि.सं. १६६६ में, 'श्रीमद्विजयदानसूरिश्वरजी जैन ग्रंथमाला, सूरत' से प्रकाशित हुआ है इस कृति का अनुवाद श्री रामचन्द्रसूरि के शिष्य मुनि मानविजयजी ने किया है। २ सर्वप्रथम जिनवल्लभा.णि कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य बने थे। उसके बाद अभयदेवसूरि के शिष्य बने।
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