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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 407
योगप्रदीप
इस ग्रन्थ' के प्रणेता का नाम ज्ञात नहीं है, किन्तु इस ग्रन्थ के प्रणयन काल में ग्रन्थकार ने हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र, शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव एवं उपनिषदों का उपयोग अवश्य किया है ऐसा कृति का अध्ययन करने से अवगत होता है। यह रचना १४३ पद्यों की है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें योग साधना के कतिपय विधि-विधान दिखाए गये हैं। इसका मुख्य विषय आत्मा है। इसमें आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण हुआ है। इसके अतिरिक्त इसमें परमपद की प्राप्ति का उपाय बतलाया गया है। इस कृति में प्रसंगोपात्त उन्मनीभाव, समरसता, रूपातीतध्यान, शुक्लध्यान, अनाहतनाद, निराकार ध्यान इत्यादि की साधना विधि का भी निरूपण हुआ है।
बालवबोध - इस कृति पर किसी ने पुरानी गुजराती में बालावबोध लिखा है । योगशास्त्र
यह कृति आचार्य हेमचन्द्र की है। श्री हेमचन्द्राचार्य विक्रम की बारहवीं शताब्दी के एक प्रख्यात जैन आचार्य हुए हैं। आप केवल जैनागम एवं न्याय - दर्शन के ही प्रकाण्ड पण्डित नहीं थे, प्रत्युत व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, काव्य, दर्शन, योग आदि सभी विषयों पर आपका अधिकार था । आपने उक्त सभी विषयों पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । आपके विशाल एवं गहन अध्ययन के कारण आपको 'कलिकालसर्वज्ञ' के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है।
आचार्य हेमचन्द्र ने योग पर योग- शास्त्र लिखा है। यह ग्रन्थ संस्कृत पद्य में निबद्ध है। इसमें कुल ११६६ श्लोक हैं। यह कृति द्वादश प्रकाशों में विभक्त है। संक्षेप में कहें तो इसमें पातंजलयोगसूत्र में निर्दिष्ट अष्टांग योग के क्रम से गृहस्थप-जीवन एवं साधु-जीवन की आचार साधना का जैनागम के अनुसार वर्णन हुआ है। इसमें आसन, प्राणायाम आदि से सम्बन्धित विषयों का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें आचार्य हेमचन्द्र ने आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में वर्णित पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी उल्लेख किया है। कुछ विस्तार से
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यह कृति श्री जीतमुनि द्वारा सम्पादित है और जोधपुर से वी. सं. २४४८ में प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार पं. हीरालाल हंसराज द्वारा सम्पादित यह कृति सन् १६११ में मुद्रित हुई है। 'जैन साहित्य विकास मंडल' ने यह ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक बालावबोध, गुजराती अनुवाद और विशिष्ट शब्दों की सूची के साथ सन् १६७० में प्रकाशित किया है।
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यह कृति गुजराती विवेचन के साथ वि.सं. २०३३ में 'श्री मुक्तिचंद्रश्रमण आराधना केन्द्र, गिरि विहार, तलेटी रोड पालीताणा' से प्रकाशित है। यह छट्टा संस्करण है। इसका गुजराती भाषान्तर आचार्य श्री केशरसूरि जी ने किया है।
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