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406/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
२०-२० श्लोक परिमाण वाली एक-एक विशिका रचकर 'विशतिविंशिका' नामक एक प्रकरण निर्मित किया है। योगविंशिका इसी प्रकरण का एक भाग है। यह प्राकृत के बीस पद्यों में गुम्फित है।' इस विंशिका के प्रथम पद्य में 'योग' शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि सभी प्रकार की धर्मक्रियाएँ, धर्माराधनाएँ एवं धार्मिक विधि-विधान जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ने वाले हैं वह योग है। साधु की विहार क्रिया, वचनक्रिया, भिक्षाटन आदि क्रिया रूप समस्त धर्मव्यापार 'योग' है। इससे स्पष्ट होता है कि यह विशिका धार्मिक विधि-विधानों से सम्बद्ध है।
वस्ततुः मोक्षमार्ग का दूसरा नाम योग साधना है। यहां मोक्षमार्ग से तात्पर्य देव-गुरु रूप योगी की उपासना और धर्मरूप योग की साधना करना है। धर्मरूप योग की साधना का तात्पर्य आंतरिक रूप से गुणों का संग्रह करना और बाह्य रूप से आचार पालन करना है। ज्ञानादि पांच आचार, दानादि चार धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण, भावना, ज्ञानाभ्यास आदि साधना के अनेक भेद हैं, ध्यान भी साधना है। उपयोग-समता भी साधना के अंग हैं। संक्षेप में कहें तो दर्शन और ज्ञान की उपासना करना प्रारंभिक योग साधना है तथा आचारों, भावनाओं आदि की उपासना करना प्रधान योग साधना है।
प्रस्तुत विंशिका में क्रिया, अनुष्ठान, प्रणिधान, योग आदि के रूप में विधि-विधान संबंधी कई स्थल दृष्टिगत होते हैं वे निम्न हैं- क्रिया की आवश्यकता, द्रव्य किन्तु शुभ क्रिया की अत्याजता, निश्चय-व्यवहार से योग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग, आध्यानयोग, समतायोग, वृत्तिसंशययोग, इच्छायोग, प्रवृत्तियोग, स्थिरयोग, सिद्धियोग, सामर्थ्ययोग, विषादि पाँच अनुष्ठान, सूत्रप्रदान की योग्यता का आधार, सूत्रदान किसको, देशविरति को ही विधियत्नसंभव, सूत्रप्रदान करना भी एक प्रकार का व्यवहार, अविधि का समर्थन करने पर तीर्थोच्छेद, विधिपूर्वक व्यवस्थापना से तीर्थोन्नति, अयोग्य को दान करने से अधिकदोष, जीतव्यवहार भी शुद्धिकारक, अनुष्ठान में फलतः विधिरूपता, विधि भिन्न आचरणा के पांच प्रकार, अविधिकृत की सफलता कैसे, विधि निरूपण में कल्याण संपादकता, चैत्यवन्दन विधि में मोक्षप्रयोजकता आदि।
उक्त सभी प्रकार के बिन्दु विधि पक्ष को पुष्ट करने वाले हैं। टीका - इस ग्रन्थ पर महोपाध्याय श्री यशोविजयजी ने एक वृत्ति रची है जो विषय की स्पष्टता के साथ-साथ अत्यन्त भाववाही है।
' यह विंशिका नामक ग्रन्थ वृत्ति एवं गुजराती विवेचन के साथ, 'दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ३६ कलिकुंड सोसायटी, धोलका' से वि.सं. २०५५ में प्रकाशित हुआ है।
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