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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/405 और ४. सिद्ध-योगी। इनमें दूसरा और तीसरा योगी साधना का अधिकारी माना गया है तथा सिद्ध योगी को साधना सिद्ध कर चुकने वाला कहा गया है। इसमें ओघ, मित्रा, तारा, कान्ता आदि कई दृष्टियों को संग्रह रूप से कहा गया है अतः ग्रन्थ का नाम 'योगदृष्टिसमुच्चय' है। योग-शतक यह कृति प्राकृत भाषा के १०१ पद्यों में निबद्ध है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में दो प्रकार से योग का स्वरूप बताया गया है - १. निश्चय और २. व्यवहार। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना निश्चय योग है और इन तीनों का साधन रूप में बने रहना व्यवहार योग है। इसी क्रम में आगे उल्लेख किया गया हैं कि साधक जिस भूमिका पर स्थित है, उससे ऊपर की भूमिकाओं पर पहुँचने के लिए उसे क्या करना चाहिए? इसके लिए योग-शतक में कुछ नियमों, साधनों एवं विधियों का विवेचन हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि साधक को स्वसाधना विकास के लिए निम्न प्रवृत्तियां करनी चाहिये। यथा- १. अपने स्वभाव की आलोचना करनी चाहिए २. लोक-परम्परा के ज्ञान और उचित-अनुचित प्रवृत्ति का विवेक रखना चाहिए ३. अपने से अधिक गुणसम्पन्न साधक के सहवास में रहना चाहिए ४. राग-द्वेष आदि दृष्प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए तप, जप जैसे साधनों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। ५. अभिनव साधक को श्रुत-पाठ, गुरु-सेवा, आगम-आज्ञा जैसे स्थूल साधन का आश्रय लेना चाहिए। ६. शास्त्र के अर्थ का यथार्थ बोध हो जाने के बाद आन्तरिक दोषों (रागमोहादि) का निष्कासन करने के लिए आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। इसमें यह भी बताया गया है कि योग-साधना में प्रवृत्त हुए साधक को सात्त्विक आहार करना चाहिए। इस संदर्भ में सर्वसंपत्करी भिक्षा का स्वरूप वर्णित हुआ है। . अन्त में कहा है कि योग-साधना के अनुरूप आचरण करने वाला साधक अशुभ कर्मों का क्षय ओर शुभ कर्मों का बन्ध करता है तथा क्रमशः आत्म विकास करता हुआ अबन्ध अवस्था को प्राप्त करके कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है।' योगविंशिका १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता श्री हरिभद्रसूरि ने पृथक्-पृथक् बीस विषयों पर ' योगबिन्दु आदि चार ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित 'जैन योग ग्रन्थ चतुष्टय' के नाम से, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, पीपलिया बाजार, ब्यावर से सन् १६८२ में प्रकाशित हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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