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________________ 404/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य १. अध्यात्म- यथाशक्य अणुव्रत या महाव्रत को स्वीकार करना एवं मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावनापूर्वक आत्मचिन्तन करना अध्यात्म साधना है। इससे पाप कर्म का क्षय होता है, सत् पुरुषार्थ का उत्कर्ष होता है और चित्त में समाधि की प्राप्ति होती है। २. भावना- अध्यात्म चिन्तन का बार-बार अभ्यास करना भावना है। इससे काम, क्रोध आदि मनोविकारों एवं अशुभ भावों की निवृत्ति होती है और ज्ञान आदि शुभ भाव परिपुष्ट होते हैं। ३. ध्यान- तत्त्व चिन्तन की भावना का विकास करके मन को या चित्त को किसी एक पदार्थ या द्रव्य के चिन्तन पर एकाग्र करना, स्थिर करना ध्यान है। इससे चित्त स्थिर होता है और भव-परिभ्रमण के कारणों का नाश होता है। ४. समता- संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं सम्बन्ध के प्रति चाहे वह इष्ट हो या अनिष्ट तटस्थ वृत्ति रखना समता है। इससे अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है और कमों का क्षय होता है। ५. वृत्ति-संक्षय- चित्त-वृत्तियों का जड़मूल से नाश होना वृत्ति-संक्षय है। इस साधना के सफल होते ही घाति कर्म का समूलतः क्षय हो जाता है और क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में पाँच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है१. विष अनुष्ठान, २. गरल अनुष्ठान, ३. अनुष्ठान, ४. तदहेतु अनुष्ठान और ५. अमृत अनुष्ठान। इसमें आदि के तीन असदनुष्ठान हैं और अन्तिम के दो सदनुष्ठान हैं। योग-साधना के अधिकारी व्यक्ति को सदनुष्ठान ही होता है। योगदृष्टिसमुच्चय यह कृति संस्कृत में है। इसमें २२८ पद्य हैं। इस ग्रन्थ में प्रयुक्त अचरमावर्तकाल (अज्ञातकाल) की अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्त्तकाल (ज्ञात काल) की अवस्था को 'योग-दृष्टि' कहा है। इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम विभाग में प्रारम्भिक अवस्था से लेकर विकास की अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं की अपेक्षा से आठ विभाग किए गए हैं- १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. तारा। इसके पश्चात् उक्त आठ भूमिकाओं में रहने वाले साधक के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें पहली चार भूमिकाएँ प्रारंभिक अवस्था में होती है। इनमें मिथ्यात्व का कुछ अंश शेष रहता है, परन्तु अंतिम की चार भूमिकाओं में मिथ्यात्व का अंश नहीं रहता है। द्वितीय विभाग में योग के तीन विभाग निर्दिष्ट किये गये हैं - १. इच्छा-योग, २. शास्त्र-योग और ३. सामर्थ्य-योग। तृतीय विभाग में योगी को चार भागों में बाँटा गया है - १. गोत्र-योगी, २. कुल-योगी, ३. प्रवृत्त-चक्र योगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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