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12 /जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
अशोकवन में शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान साधना करने का वर्णन है । बौद्ध त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निर्ग्रन्थ श्रमण अपने उपासकों को ममत्व भाव का विसर्जन करवाकर कुछ समय के लिए समभाव अर्थात् सामायिक एवं ध्यान की साधना करवाते थे। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा पौषध करने का विवेचन मिलता है । त्रिपिटक में बौद्धों ने निर्ग्रन्थों के उपोसथ (पौषध) की आलोचना भी की है। इससे यह बात पुष्ट होती है कि सामायिक, प्रतिक्रमण एवं पौषध की परम्परा महावीर के काल में व्यवस्थित रूप से प्रचलित थी।
जहाँ तक स्तुति, स्तवन एवं वन्दन सम्बन्धी अनुष्ठानों का प्रश्न है हमें ये कृत्य सूत्रकृतांगसूत्र में मिलते हैं। इस सूत्र में महावीर की जो स्तुति दृष्टिगत होती है, वह सम्भवतः जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीय में वीरासन से शक्रस्तव ( णमुत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा है वह इसी 'नमोत्थुणं' का ही संस्कृत रूप प्रतीत होता है। चतुर्विंशतिस्तव का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है। इसे 'लोगस्ससूत्र' का पाठ भी कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में भी उपलब्ध है। गुरुवंदन के अवसर पर प्राचीनकाल से प्रचलित है क्योंकि यह पाठ आवश्यकसूत्र जैसे प्राचीन आगम में मिलता है। अनुमानतः वंदनविधि के आधार पर ही चैत्यवंदन विधि का विकास हुआ और परवर्ती काल में चैत्यवंदन विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रन्थ भी रचे गये हैं। प्रासंगिक स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनपूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है।
जहाँ तक जिनपूजा विधि सम्बन्धी अनुष्ठानों का प्रश्न है, हमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में जिनपूजा विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। इसका प्राथमिक रूप राजप्रश्नीयसूत्र एवं ज्ञाताधर्मकथासूत्र में प्राप्त होता है। राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रोपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं के पूजन करने के स्पष्ट उल्लेख हैं। यद्यपि राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनप्रतिमा - पूजन एवं जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि करने के जो वर्णन हैं वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती है। फिर भी यह
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