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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/11 गुणरत्नसंवत्सर-तप, रत्नावती-तप, लघुसिंहक्रीड़ा-तप, कनकावली-तप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीड़ित-तप, सर्वतोभद्र-तप, भद्रोत्तर-तप, महासर्वतोभद्र-तप, और आयम्बिलवर्धमान-तप आदि की विधियाँ उल्लेखित हैं। इसके बाद आचार्य हरिभद्र के तपपंचाशक में आगमनिर्दिष्ट उपरोक्त तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तप विधियों की चर्चा हुई है। इस वर्णन के आधार पर यह जाना जा सकता है कि कालक्रम के आधार पर तप की विधियों का कैसे विकास हुआ और इन तप विधियों का क्रमिक रूप प्राचीन ग्रन्थों में किस प्रकार का उपलब्ध होता है। यही प्रक्रिया अन्य विधि-विधानों में भी जाननी चाहिए। जहाँ तक जैन श्रमण साधकों के नित्य करने योग्य धार्मिक कृत्यों एवं विधियों का सम्बन्ध है, हमें ध्यान और स्वाध्याय के ही उल्लेख मिलते है। उत्तराध्ययन में निर्देश है कि मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करें। इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों में भी प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा, और चतुर्थ में पुनः स्वाध्ययाय करें। नित्यकर्म के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख प्रतिक्रमण अर्थात् अपने दुष्कर्मों की समालोचना और प्रायश्चित्त विधि के मिलते हैं। प्रभु पार्श्वनाथ और प्रभु महावीर की धर्म देशना का एक मुख्य अन्तर प्रतिक्रमण की अनिवार्यता भी रही है। महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। महावीर के धर्म संघ में सर्वप्रथम प्रतिक्रमण एक दैनिक अनुष्ठान बना। इसी से षडावश्यकों की अवधारणा का विकास हुआ। आज भी प्रतिक्रमण की विधि षड़ावश्यकों के साथ ही की जाती है। श्वेताम्बर परम्परा के आवश्यकसूत्र एवं दिगम्बर परम्परा के मूलाचार' में षड़ावश्यक विधि का स्पष्ट स्वरूप उल्लेखित है। ये षड़ावश्यक कर्म है- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, गुरूवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (ध्यान) और प्रत्याख्यान। आवश्यकनियुक्ति में वंदन', कायोत्सर्ग आदि की विधियों एवं उनके दोषों की जो चर्चा है, उससे इतना अवश्य फलित होता है कि क्रमशः इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक बनाया गया है। आज एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षड़ावश्यकों को सम्पन्न किया जाता है। जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों का प्रश्न है हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोसथ या पौषधविधि के ही प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उपासकदशांग में शकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में ' मूलाचार - ६/२२, ७/१५ २ आवश्यकनियुक्ति - १२२०-२६ ३ वही - १५६०-६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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