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10 / जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है।
यह स्मरणीय है कि भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। वैदिक साहित्य इन सबके उल्लेखों से भरा पड़ा है। श्रमण साहित्य में उत्तराध्ययनसूत्र' में यज्ञ का जो आध्यात्मिक स्वरूप उपलब्ध होता है वह यह बताता है कि श्रमण परम्परा में यज्ञ को नये रूप में व्याख्यायित किया है। उसमें कहा गया है कि “जो पाँच संवरों से पूर्णतया सुसंवृत्त है, जो जीवन के प्रति अनासक्त है, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्व भाव नहीं है, जो पवित्र है और जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी साधक ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं । उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच ) है और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक और सुखदायक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है।" इस सम्बन्ध में अन्य और भी विवरण आगमों में परिलक्षित होते हैं, किन्तु प्रसंगदोष के निवारणार्थ इस विवेचन को यहीं विराम देते हैं।
हमारा मुख्य ध्येय जैन परम्परा में कर्मकाण्ड या विधि-विधान का विकास एवं उनका सूत्रपात कैसे हुआ, उसकी चर्चा करना है। यदि जैनगमों का समीक्षात्मक पहलू से अवलोकन करते हैं तो जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थों में धार्मिक कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। प्रभु पार्श्वनाथ ने तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। सामान्यतया प्राचीनतम आगमों के परिप्रेक्ष्य में विधि-विधानों का प्रारम्भिक स्वरूप सर्वप्रथम आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौवें अध्ययन में प्राप्त होता है । इस अध्ययन में भगवान महावीर की जीवन चर्चा के प्रसंग को लेकर, उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख हुआ है। इसके पश्चात् आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में हमें मुनि जीवन से सम्बन्धित भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि-विधानों के उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की चर्चा भी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार तपस्याओं की विविध विधियाँ हमें अन्तकृद्दशा में भी उपलब्ध होती हैं जो कि उत्तराध्ययनसूत्र के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती है। एवं विधि-विधान परक भी है।
यहाँ यह ध्यान रखने योग्य हैं कि ( अंतकृतद्दशा) सूत्र का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५ वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसके आठवें वर्ग में
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उत्तराध्ययन
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१२/४०-४४
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