SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आतुरप्रत्याख्यान (तृतीय) इस प्रकीर्णक' में ७१ गाथाएँ हैं। यह कृति आचार्य वीरभद्र की मानी जाती है। यह प्रकीर्णक समाधिमरण से सम्बन्धित होने के कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा जाता है। इसे बृहदातुर प्रत्याख्यान भी कहते हैं । यहाँ दसवीं गाथा के पश्चात् कुछ गद्यांश भी हैं। इसमें मंगलाचरण का अभाव है। जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 273 ये इसमें मरण के बालमरण, बालपण्डितमरण और पण्डितमरण तीन भेद किये गये हैं। बालमरण एवं पण्डितमरण का सामान्य विवेचन किया गया है। इसमें बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि देशविरत जीव का बालपण्डित मरण होता है। पण्डितमरण की चर्चा करते हुए उसके त्रेसठ अतिचारों की शुद्धि, जिन वन्दना, गणधर वन्दना, और पाँच महाव्रतों के अतिक्रमण के दोषों की आलोचना एवं उनका पूर्ण प्रत्याख्यान करने के पश्चात् संथारा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करने का निर्देश है। संथारा ग्रहण करने की विधि के अन्तर्गत सामायिक ग्रहण, सर्व बाह्याभ्यन्तर उपधि का परित्याग, अठारह पापस्थानों का त्याग, एकमात्र आत्मा के अवलम्बन, एकत्व भावना, प्रतिक्रमण, आलोचना, क्षमापना इत्यादि के निरूपण किया गया है। १ तदनन्तर असमाधिमरण का फल बताते हुए कहा गया है कि जो अष्ट मदों से युक्त, चंचल और कुटिल बुद्धि पूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं वे आराधक नहीं है बल्कि उनका संसार चक्र बढ़ जाता है। यहाँ बालमरण के प्रसंग में कहा गया है कि जिनवचन को न जानने वाले बहुत से अज्ञानी बालमरण मरते हैं। ये शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, आग से जलने और जल में प्रवेश करने से मरते हैं । यहाँ जन्म-मरण और नरक की वेदना का स्मरण कर पण्डितमरण रूप मृत्यु के वरण का उपदेश है। इसके पश्चात् पण्डित मरण की आराधना विधि का वर्णन है । पण्डितमरण की भावनाओं के प्रसंग में कहा गया हैं कि पण्डितमरण को प्राप्त होने वाला आराधक उत्कृष्टतः तीन भव करके निर्वाण को प्राप्त करता है । अन्त में बताया गया है कि समाधिमरण को स्वीकार करने वाला आराधक अनशनव्रत को विधिपूर्वक अंगीकार करके यह विचार करता है कि मृत्यु धैर्यवान की भी होती है और कायर की भी, तो क्यों न धैर्य से मृत्यु को प्राप्त किया जाये ? इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ वह धीर, शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है । निष्कर्षतः यह प्रकीर्णक संथाराग्राही की मनोभूमिका को तद्रूप बनाने के लिए अमूल्य सामग्री प्रस्तुत करता है । आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं, पइण्णयसुत्ताईं भा. १, पृ. ३२६-३३६ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy