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244/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
इन्द्रियजय तप, कषायजय तप, योगशुद्धि तप, अष्टकर्मसूदन तप, रोहिणी तप, अंबा तप, ज्ञानपंचमी तप, नन्दीश्वर तप, सत्यसुखसंपत्ति तप, पुण्डरीक तप, मातृ तप, समवसरण तप, अक्षयनिधि तप, वर्धमान तप, दवदन्ती तप, चन्द्रायण तप, भद्र महाभद्र-भद्रोत्तर- सर्वतोभद्र तप, एकादशांग-द्वादशांग आराधन तप, अष्टापद तप, बीशस्थानक तप, सांवत्सरिक तप, अष्टमासिक तप, छहमासिक तप इत्यादि ४५ प्रकार के तपों की विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस विधि के अन्त में कहा गया है कि इन तपों के अतिरिक्त कई लोग माणिक्यप्रस्तारिका तप, मुकुटसप्तमी तप, अमृताष्टमी तप, अविधवादशमी तप, गौतमपडवा तप, मोक्षदण्डक तप, अदुःखदर्शी तप, अखण्डदशमी तप इत्यादि तपाचरण करते हुए भी दिखाई देते हैं, परन्तु वे तप आगम विहित न होने से जिनप्रभसूरि ने उनका इस द्वार में वर्णन नहीं किया है। इसी तरह एकावली, कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, गुणसंवत्सर आदि जो तप हैं, उन्हे इस काल में करना दुष्कर होने से उनका भी वर्णन नहीं किया गया है। बारहवाँ- नन्दिरचनाविधि द्वार - इस द्वार में विस्तार के साथ नन्दिरचना विधि वर्णित की गई है। साथ ही नन्दिरचना के प्रसंग पर बोले जाने योग्य १८ स्तुतियाँ एवं स्तोत्र भी दिये गये हैं तथा दीक्षा के लिए उपस्थित हुए भव्यात्मा की योग्यता-अयोग्यता के विषय में परीक्षा विधि भी कही गई है। तेरहवाँ - प्रव्रज्याविधि द्वार - इस द्वार में प्रव्रज्या विधि अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा विधि का विशिष्ट विधान बताया गया है। इसके साथ ही दीक्षा के पूर्व दिन करने योग्य विधि, दीक्षा के दिन गृहत्याग की विधि एवं समवसरण (नन्दिरचना) की पूजा विधि का भी संक्षेप में उल्लेख किया गया है। चौदहवाँ- लोचकरणविधि द्वार - इसमें शुभ मुहूर्त, नक्षत्र, दिन, वार की चर्चा के साथ लोचकरण विधि बतलायी गयी है। इसमें स्वयं के द्वारा लोच करने और दूसरों के द्वारा लोच करवाने रूप दोनों प्रकार की लोच विधि का निर्देश है। पन्द्रहवाँ- उपयोगविधि द्वार - इस द्वार में प्रव्रजित मुनि को प्रत्येक कार्य शास्त्र के नियमानुसार एवं उपयोगपूर्वक करना चाहिए, ऐसा ज्ञापित किया गया है। उपयोग अर्थात् सजगता। साधु की दैनन्निद चर्या में आहार हेतु भ्रमण के लिए जाने से पूर्व आवश्यक क्रिया के रूप में 'उपयोगविधि' की जाती है जिसमें 'उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने का आदेश' लेकर अन्नत्थसूत्र पूर्वक एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग किया जाता है तथा कायोत्सर्ग पूर्ण कर प्रगट में एक नमस्कारमन्त्र बोलकर गुरु कहते हैं- 'लाभ'। शिष्य कहता है- 'कह लेसहं'। पुनः गुरु कहते हैं- 'तहति जह गहियं पुव्वसाहूहि' इत्यादि।
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