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ने ऐसा कहा है कि वर्तमानकाल में प्रतिमाग्रहण रूप श्रावकधर्म व्युच्छिन्न (विनष्ट) प्रायः हो गया है इसलिए प्रतिमाओं का विधान करना उचित नहीं है । तदनन्तर उपधान तप में प्रवेश करने की विधि का निरूपण किया हैं। इसके साथ ही सात प्रकार के उपधान तप की उत्सर्ग और अपवाद रूप सामाचारी का कथन किया गया है। इसमें पौषधग्रहण की विधि, उपधानतप की आवश्यक (दैनिक) विधि, उपधान से बाहर निकलने की विधि, आदि का भी उल्लेख किया गया है। सातवाँ - मालारोपणविधि द्वार उपधान तप की समाप्ति पर मालारोपण क्रिया की जानी चाहिए, इसलिए इस द्वार में विस्तार के साथ मालारोपण विधि ज्ञापित की गई है। इस विधि में मानदेवसूरिकृत ५४ गाथा का 'उवहाणविही’ नामक पूरा प्राकृत प्रकरण, जो महानिशीथ नामक आगम सिद्धान्त के आधार पर रचित है, उद्धृत किया गया है।
आठवाँ - उपधानप्रतिष्ठापंचाशकप्रकरण द्वार- यह द्वार उपधान तप की प्रामाणिकता एवं उसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है । इस द्वार के प्रारंभ में उल्लेख है कि महानिशीथग्रन्थ की प्रामाणिकता के विषय में प्राचीन काल से ही कुछ आचार्यों में मतभेद चला आ रहा है और वे इस उपधान विधि को अनागमिक कहते हैं इसलिए इस ८ वें द्वार में, इस विधि के समर्थन रूप 'उवहाणपइट्ठापंचासय' (उपधानप्रतिष्ठा- पंचाशक) नामक ५१ गाथा का एक संपूर्ण प्रकरण, जो किसी पूर्वाचार्य का बनाया हुआ है, वह उद्धृत कर दिया है। इस प्रकरण में महानिशीथसूत्र की प्रामाणिकता के साथ उपधानविधि का यथेष्ठ प्रतिपादन किया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 243
नौवाँ - पौषधविधि द्वार इस द्वार में श्रावक को पर्व दिनों में पौषधव्रत ग्रहण करना चाहिए, इसका विधान है। साथ ही इस व्रत के ग्रहण एवं पारण की विधि प्रतिपादित की गई है। इसकी अन्तिम गाथा में कहा गया है कि जिनवल्लभसूरि ने जो 'पौषधविधि प्रकरण' बनाया है उसी के आधार पर यहाँ यह विधि लिखी गई है, जिन्हें विशेष कुछ जानने की इच्छा हों, उन्हें वह प्रकरण पढ़ लेना चाहिए। दशवाँ- प्रतिक्रमणविधि द्वार इस द्वार में प्रतिक्रमण सामाचारी का वर्णन किया गया है। जिसमें दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक इन पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण की विधि यथाक्रम पूर्वक निर्दिष्ट है। इन विधियों के अन्तर्गत बिल्लीदोष निवारण विधि, छींकदोष निवारण विधि और प्रतिक्रमण के समय बैठने योग्य वत्साकार मंडली की स्थापना विधि का भी निर्देश है।
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ग्यारहवाँ - तपविधि द्वार इस द्वार में तपोविधि का विधान है। इसमें कल्याणक तप, सर्वांगसुन्दर तप, परमभूषण तप, आयतिजनक तप, सौभाग्यकल्पवृक्ष तप,
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