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________________ २ क्रमप्रयोजन आदि दृष्टियों से विचार किया जायेगा । ' इन द्वारों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है १. फलद्वार- इस द्वार में सामायिक आवश्यक रूप अनुयोग का फल बताते हुए कहा है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है। यह सामायिक आवश्यक ज्ञान - क्रियामय है । २. योगद्वार - योग द्वार की व्याख्या करते हुए निर्देश दिया है कि जिस प्रकार वैद्य बालक के लिए यथोचित आहार की सम्मति देता है उसी प्रकार मोक्षमार्गाभिलाषी भव्य जीव के लिए प्रारम्भ में यथोचित प्राथमिक आहार रूप सामायिक आवश्यक का आचरण करना योग्य है। इसमें लिखा है कि गुरू शिष्य के द्वारा पंचनमस्कारमंत्र का अध्ययन करने पर सर्वप्रथम विधिपूर्वक सामायिक का ज्ञान कराता है; उसके बाद क्रमशः शेष श्रुति का भी बोध कराता है, क्योंकि स्थविरकल्प का क्रम उसी प्रकार का कहा गया है । वह क्रम यह है - प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति विहार और सामाचारीस्थिति।' ३. मंगलद्वार - इस द्वार में मंगल की क्या उपयोगिता है, शास्त्र में मंगल कितने स्थानों पर किस प्रयोजन से होता है, मंगल का अर्थ क्या है, मंगल के भेद, मंगल के प्रकार इत्यादि का वर्णन किया गया है। प्रकारान्तर से मंगल की व्याख्या में नन्दि को भी मंगल कहा गया है। उसके भी मंगल की तरह चार प्रकार कहे हैं । उनमें भावनंदी पंचज्ञान रूप है। आगे पंचज्ञान की विशद विवेचना की गई है। ४. समुदायार्थ- इसमें अनुयोग का अर्थ, आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध, अध्ययन आदि पदों का पृथक्-पृथक् अनुयोग करने की विधि, आवश्यक के प्रकार, आवश्यक के पर्यायवाची, आवश्यक श्रुतस्कन्ध के छः अध्ययनों का अर्थाधिकार कहा गया है । ५-६ द्वारोपन्यास और तभेद द्वार- इन दो द्वारों में सामायिक अध्ययन की विशेष व्याख्याएँ हैं। इसमें सामायिक की विशिष्टता को दर्शाने के प्रयोजन से यह उल्लेख किया है कि जिस प्रकार व्योम (आकाश) सब द्रव्यों का आधार है। उसी प्रकार विधिपूर्वक की गई सामायिक सब गुणों का आधार है। शेष अध्ययन एक तरह से सामायिक के ही भेद हैं, क्योंकि सामायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप तीन प्रकार की होती है और कोई गुण ऐसा नहीं है कि जो इन तीनों से अलग हो । ७. निरूक्त द्वार- इस सातवें द्वार में सामायिक के चार अनुयोग १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम तथा ४. नय, इन शब्दों की ६ , विशेषावश्यकभाष्य गा. १-२ २ वही गा. ३ ३ वही गा. ४ ४ वही गा. ५ 오 ६ - वही गा. ७ वही गा. ७८ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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