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________________ जैन धर्म के इतिहासको यदि हम सम्यक् रूप से समझने का प्रयास करें तो यह स्पष्ट है कि कालक्रम में उसमें सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से अनेक प्रकार के विधि-विधानों और कर्मकाण्डों का प्रवेश हुआ। प्रारंभिक जैन आगम साहित्य में मूलतः संयमी मुनि जीवन कैसे जीये इसको लेकर अनेक नियम और उपनियम बनें, चाहे मुनि का मूलभूत लक्ष्य कषाय रूपी कचरे का परिमार्जन रहा हो, किन्तु यदि उसे जीवन जीना है तो निर्धारित क्रियाकलाप तो करने ही होगे । यह सत्य है कि प्रारम्भिक जैन आगमों में मुनि जीवन से सम्बन्धित विधि-विधान ही मिलते हैं । उसकी जीवनचर्या और दिनचर्या इन विधि-विधानों के साथ ही योजित है । जैन संघ में केवल मुनि और साध्वियाँ ही नहीं होती, उसमें उपासक और उपासिकाएँ भी होती हैं अतः यह भी आवश्यक प्रतीत हुआ कि उपासकों और उपासिकाओं से सम्बन्धित विधि-विधान भी अस्तित्व में आयें । जहाँ तक इन प्रारम्भिक विधि-विधानों का प्रश्न हैं वहाँ उनका मूल सम्बन्ध दिनचर्या और बाह्य व्यवहार से ही है । जहाँ तक उपासना से सम्बन्धित विधि-विधान का प्रश्न है उसमें सर्वप्रथम षट्आवश्यकों का विधान हुआ । इन षट्आवश्यकों के अन्तर्गत 1. सामायिक 2. स्तुति और स्तवन 3. गुरुवंदन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग (ध्यान-साधना) और 6. प्रत्याख्यान (तप और संयम सम्बन्धी नियम ग्रहण) - इन छः का विधान किया गया। इस प्रकार जैन धर्म में विधि-विधानों का जो विकास हुआ उनका सम्बन्ध मूलतः संयमपूर्ण जीवन शैली से था। प्रारंभिक विधि-विधान हमें ये ही बताते हैं कि चाहे गृहस्थ हो या मुनि उसे अपना जीवन किस प्रकार जीना चाहिये, किन्तु कालान्तर में जब जैनधर्म में चैत्यों का निर्माण और मूर्तिपूजा का विकास हुआ तो उससे सम्बन्धित विधि-विधान ही अस्तित्व में आये। इस प्रकार जैन धर्म में पूजा और प्रतिष्ठा को लेकर अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड विकसित हुए। इन विविध कर्मकाण्डों के विकास में सहवर्ती अन्य धर्म परम्पराओं का प्रभाव भी आया । यद्यपि जैन आचार्यों ने अन्य परम्पराओं से गृहित विधि-विधानों को अपनी परम्परा के अनुकूल बनाने का प्रयत्न तो किया फिर भी अन्य परम्पराओं का प्रभाव यथावत् बना रहा । मात्र ये ही नही, जैन देवमंडल में तीर्थंकरों के साथ-साथ अन्य देव - देवीयों का प्रवेश भी हुआ और उनके पूजा-उपासना सम्बन्धी विधि-विधान भी अस्तित्व में आये । जैन विधि-विधान की यह विकास यात्रा ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि आचार्य हरिभद्र या उनके भी कुछ पूर्व से जैन विधि-विधान सम्बन्धी कुछ ग्रन्थ मिलते हैं किन्तु इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रायः दसवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक लिखे गए। इन ग्रन्थों में भी सूक्ष्म से अध्ययन करने पर विधि-विधानों की विकास यात्रा का न केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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