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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 297 मिथ्यादुष्कृतकुलक (द्वितीय) इस कुलक' में १७ गाथाएँ हैं। यह प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें मंगलाचरण का अभाव है। इस कृति के रचनाकार एवं रचनाकाल की जानकारी उपलब्ध नहीं है। परन्तु प्रस्तुत कृति का अवलोकन करने से इतना स्पष्ट हो जाता हैं कि यह कुलक मुख्यतः चौरासीलाख जीवयोनि के साथ भव-भव में किये गये राग-द्वेष मोहादि रूप पाप कार्यों से विरत होने के लिए उनक 'मिच्छामि दुक्कडं ' देने की विधि से सम्बद्ध है। प्रस्तुत कुलक के प्रारम्भ में यह बताया गया हैं कि आराधक सर्वप्रथम संसार चक्र की विविध योनियों में भ्रमण करते हुए जिन-जिन प्राणियों को उसने दुख दिये हों उनके प्रति मिध्यादुष्कृत दें। उसके बाद विभिन्न भवों में जो माता-पिता, पत्नी, मित्र, पुत्र और पुत्रियाँ रही हैं, जिनका अनशन ग्रहण के समय त्याग किया जा रहा है उनके प्रति मिथ्यादुष्कृत दें। तदनन्तर राग-द्वेष वश जिन एकेन्द्रिय जीवों का वध किया हो, मृषा भाषण किया हो, लोभ दोष से परिग्रह का सेवन किया हो, राग के कारण अशनादि भोजन किया हो उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कड़ दें। तत्पश्चात् इहलोक और परलोक में मिथ्यात्व मोह से मूढ़ होकर साधुओं की सेवा न की हो, साधर्मिक वात्सल्य न किया हो, चतुर्विध संघ की भक्ति न की हो उसके लिए मिथ्यादुष्कृत दें। अन्त में चारों गतियों के जीवों के प्रति जो कुछ पाप किया हो उसका 'मिच्छामि दुक्कडं' दे। इस प्रकार सभी पाप कर्मों से निवृत्त होने के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देने को कहा गया है। संथारगपइण्णयं (संस्तारक - प्रकीर्णक) संस्तारक प्रकीर्णक' प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। इसमें कुल १२२ गाथाएँ हैं। ये सभी गाथाएँ सामान्यतः समाधिमरण ग्रहण करने की सांकेतिक विधि और उसकी पूर्व प्रक्रिया का निर्देश करती हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय समाधिमरण है। जैन परम्परा में समाधिमरण के जो पर्यायवाची नाम पाये जाते हैं उनमें 'संलेखना' और 'संथारा' ये दो नाम अति प्राचीन हैं। संथारा अर्थात् संस्तर ( सम् + तृ + अप्) शब्द का सामान्य अर्थ तो 'शय्या' होता है किन्तु 'संथारा' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण 'संस्तारक' भी है। संस्तारक शब्द का अर्थ है- सम्यक् रूप से पार उतारने वाला अर्थात् जो व्यक्ति को संसार वही भा. २, पृ. २४७-२४८ 9 संथारग पइण्णयं - पइण्णयसुत्तइं, भा. १, पृ. २८०-२६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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