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298/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
समुद्र से अथवा जन्म-मरण के चक्र से पार उतारता है वह संस्तारक (संथारा) है। इस प्रकार ‘संस्तारक' शब्द वस्तुतः समाधिमरण से ही सम्बन्धित है।
संस्तारक प्रकीर्णक के रचयिता का उल्लेख स्पष्टतः कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। अनुमानतः इसका रचना काल ईसा की सातवीं शताब्दी के पश्चात् तेरहवीं तथा तेहरवीं शताब्दी के पूर्व माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जो विवरण उपलब्ध होता है वह संक्षेप में इस प्रकार है- सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव एवं महावीर को नमस्कार किया गया है। साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित समाधिमरण की आचार-व्यवस्था को ध्यान पूर्वक सुनने का कथन किया गया है। आगे समाधिमरण की साधना को सुविहितों के जीवन का साध्य माना गया है। इसके साथ ही विभिन्न उदाहरणों एवं विविध उपमाओं से समाधिमरण की श्रेष्ठता एवं उसके गुण बताये गये हैं। उसके बाद समाधिमरण को साधकों के लिए कल्याणकारी एवं आत्मोन्नति का परम साधन माना गया है। इतना ही नहीं, समाधिमरण को तीर्थकर देव प्रणीत एवं सभी मरणों में श्रेष्ठमरण कहा गया है।
तत्पश्चात समाधिमरण धारण करने वाले साधकों का स्वरूप बताया गया है। आगे की गाथाओं में समाधिमरण का स्वरूप, उसे कब लिया जा सकता है तथा उसकी सम्यक् रूपेण साधना की विधि क्या है? इसका प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर संस्तारक के लाभ की चर्चा की गयी है और कहा गया हैं कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तपों की सम्यक् प्रकार से साधना करके हेमन्त ऋतु में संस्तारक पर आरुढ़ होना चाहिए। आगे की गाथाओं में समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधकों की क्षमाभावना का निरूपण करते हुए कहा गया हैं कि वह सर्व प्रकार के आहार का जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करता है तीन करण, तीन योग से वह अपने अपराधों के लिए समस्त संघ से क्षमायाचना करता है।
तत्पश्चात् समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति किस प्रकार साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका एवं समस्त प्राणिवर्ग से क्षमायाचना करता है इसका पुनः निरूपण किया गया है। साथ ही यह भी प्रतिपादित किया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति आत्मशुद्धि हेतु स्वयं भी सभी प्राणियों को क्षमा प्रदान करता है।
अंत में समाधिमरण ग्रहण करने का माहात्म्य प्रगट करते हुए लिखा है कि संस्तारक पर आरुढ़ हुआ साधक एक लाख करोड़ अशुभ भव के द्वारा जो असंख्यात कर्म बाँधे हों, उन्हें एक क्षण में ही दूर कर देता है। इतना ही नहीं, जो धीर व्यक्ति समाधिमरण पूर्वक देह त्यागता है वह उसी भव में या अधिक से अधिक तीन भव में मुक्त हो जाता है। अन्त की गाथा प्रशस्ति रूप है उसमें
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