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296/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
इसी अनुक्रम में पुनः उपदेश है कि अरिहंत आदि पाँच पदों का शरण स्वीकार कर एवं उनका स्मरण करते हुए साधक अपने पापकों का त्याग करें। आगे वेदना विषयक चर्चा करते हुए कहा है कि यदि मुनि आलम्बन लेता है तो उसे दुःख प्राप्त होता है। अतः यहाँ समस्त प्राणियों के प्रति समभाव पूर्वक रहते हुए वेदना सहन करने का उपदेश दिया गया है। तत्पश्चात् समाधिमरण का माहात्म्य बतलाते हुए कहा हैं कि यह मरण महापुरुषों के द्वारा आचरित और जिनकल्पियों द्वारा सेवित है। तुम्हारे द्वारा भी इस व्रत का अखण्ड पालन किया जाना चाहिए। अन्त में चरम तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट कल्याणकारी समाधिमरण को अंगीकार करने की साधक द्वारा प्रतिज्ञा की गयी है। इसके साथ ही इसमें साधक के लिए कहा गया हैं कि वह चार कषाय, तीन गारव, पाँच इन्द्रियों के विषय तथा परीषहों का विनाश करके आराधना रूपी पताका को फहराए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह प्रकीर्णक समाधिमरण विधि का सारभूत प्रतिपादन करता है। मिथ्यादुष्कृतकुलक (प्रथम)
इस नाम के दो कुलक प्राप्त होते हैं। प्रथम कुलक' समस्त जीवों से क्षमायाचना करने की विधि से सम्बन्धित है। इस कुलक का प्रारम्भ मंगलाचरण से न होकर विषय से ही हुआ है। इसमें कुल १५ गाथाएँ हैं। इस कुलक की आरम्भिक दो गाथाओं में आराधक द्वारा क्रमशः सामान्य रूप से नरकादि चारों गतियों के सभी प्राणियों से क्षमापना की गई है।
इसके पश्चात् चारों गतियों के समस्त जीवों से अलग-अलग क्षमापना की गई है। तदनन्तर पंच परमेष्ठी के प्रति जो कुछ पाप हुआ हो, उसकी निन्दा के लिए क्षमापना की गई है। तत्पश्चात् दर्शन-ज्ञान और चारित्र में, जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्रकाशित सम्यक्त्व धर्म में, चतुर्विध संघ संबंधी कार्यों में एवं महाव्रतों और अणुव्रतों के पालन करने में जो कुछ स्खलना हुई हों, उससे निवृत्त होने के लिए मिच्छामि दुक्कडं दिया गया है।
इसके पश्चात् पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर त्रसपर्यन्त जीवों से क्षमायाचना की गई है। अन्त में सभी आत्मीयजनों के प्रति क्षमापना की गई है और क्षमापना से होने वाले लाभ की चर्चा की गई है।
' मिच्छादुक्कड कुलयं- पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४५-२४६
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