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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 25
हों, इन सभी में परम कारणभूत शान्तिक- पैष्टिक कर्म संबंधी विधि-विधान है। पृथक्-पृथक् धर्मों में इस प्रकार के अनेक विधि-विधान प्रचलित है। जैन धर्म में इस उद्देश्य से मुख्यतः शांतिस्नात्र - अष्टोत्तरीस्नात्र आदि प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त अर्हत् महापूजन आदि भी कुछ विधान किए जाते हैं। यथा प्रसंग इन विधानों का उपयोग भी होता है। प्रस्तुत विधान के संबंध में एक बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि इन विधि-विधानों के मूलभूत गंभीर तत्त्वों को यदि समझकर सम्पन्न करते हैं तो शीघ्र फलदायी होते हैं अन्यथा उतने फलदायी नहीं होते हैं।
४. प्रतिष्ठादि संबंधी विधि-विधान प्रतिमा की निर्माण विधि से लेकर प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा तक अनेक प्रकार के विधि-विधान किये जाते हैं। वे सभी विधान प्रतिष्ठा की विधि रूप में प्रचलित हैं। इन विधियों का उपयोग प्रत्येक मन्दिर में प्रतिष्ठा के समय होता है। इन विधानों के अंतर्गत भूमिखनन, शिलास्थापना, कुंभस्थापन, दीपकस्थापन, जवारारोपण, सकलीकरण, अधिवासना, अंजनशलाका आदि-आदि आते हैं।
५. मांत्रिक विधि-विधान इन विधि-विधानों का क्षेत्र अत्यन्त विशाल और गंभीर है। सामान्य साधना से लेकर विश्वतंत्र को स्तंभित कर सकें इन सब प्रकार की साधना इस क्षेत्र में आती है। इन विधि-विधानों की साधना में अत्यंत सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना चाहिये। कितनी ही आवश्यक सावधानियाँ या तत्संबंधी जानकारियाँ प्राप्त किये बिना जो इस विषय में प्रवेश करते हैं वे प्रायः निष्फल होते हैं। जो साधक दिशा, काल, आसन, तप, व्रत, नियम आदि का यथायोग्य पालन करते हुए उक्त विधि-विधानों को सम्पन्न करते हैं उन्हें कार्य की सफलता के साथ-साथ सिद्धि भी प्राप्त होती है।
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६. योगोद्वहनादि विधि-विधान दीक्षा, उपस्थापना, व्रतग्रहण, कालग्रहण, पदस्थापना, आगमपठन आदि से संबंधित अनुष्ठान योगोद्वहनादि के विधि-विधान कहलाते हैं। इन अनुष्ठानों को विधिपूर्वक करने से आराधना वेगवती बनती है और उसका सुन्दर फल प्राप्त होता है इन सभी विधि-विधानों को व्यवस्थित रूप से सम्पन्न करने हेतु अनेक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं। निष्कर्षतः इन विधि- विधानों में शांतिस्नात्र, अष्टोत्तरीस्नात्र स्नात्रपूजा आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो श्री संघ के अभ्युदय के मुख्य आधार रूप होते हैं। जिनबिंबप्रतिष्ठा, कलशप्रतिष्ठा, ध्वजप्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा, शोभायात्रा आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो म-शुद्धि के साथ-साथ जिन शासन की महान् प्रभावना करने वाले हैं। वाचनाचार्यपद-स्थापना, उपाध्यायपद-स्थापना, आचार्यपद-स्थापना, प्रवर्त्तिनीमहत्तरापद-स्थापना आदि ये विधि-विधान इस प्रकार के हैं, जो पूर्वकाल से चली
आत्म
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