________________
386 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
ध्यानविचार
इसके कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। यह रचना संस्कृत गद्य में है। इसमें' ध्यान के चौबीस प्रकार, चिन्ता, भावना - ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावनायोग और करणयोग इत्यादि विषयों का विवेचन हुआ है। यहाँ ध्यानमार्ग के चौबीस प्रकारों के नामों को दो भागों में विभक्त किया गया है वे इस प्रकार हैं- १. ध्यान, २. शून्य, ३. कला, ४. ज्योति, ५. बिन्दू, ६. नाद, ७. तारा, ८. लय, ६. लव, १०. मात्रा, ११. पद और १२. सिद्धि । इन्हीं बारह नामों के साथ प्रारम्भ में 'परम' शब्द लगाने पर दूसरे बारह प्रकार होते हैं, जैसे- परमध्यान, परमशून्य आदि ।
आगे कहा है कि ध्यानविधि के इन २४ प्रकारों को करण के ६६ प्रकारों से गुणा करने पर २३०४ होते हैं। पुनः इसे ६६ करणयोगों से गुनने पर २, २१, १८४, भेद होते हैं। इसी प्रकार उपर्युक्त २३०४ को ६६ भावनायोगों से गुनने पर २, २१, १८४ भेद होते हैं इन दोनों का जोड़ करने पर ४, ४२, ३६८ भेद होते हैं। इस प्रकार इसमें ध्यान के भेद-प्रभेद किये गये हैं। यथाप्रसंग है। प्रसन्नचंद्र, भरतेश्वर, दमदन्त एवं पुण्यभूति के दृष्टान्तों का उल्लेख हुआ
निष्कर्षतः इस कृति में ध्यान विधि का क्रमिक निरूपण है। इसमें मुख्य बात यह कही गई है कि जो योग माता मरुदेवी की भाँति सहज भाव से होते हैं वे भावन योग हैं और ये ही योग उपयोगपूर्वक किये जाते हैं तब करण योग कहे जाते हैं।
प्रेक्षाध्यान- चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा
यह कृति आचार्य महाप्रज्ञ की हिन्दी गद्य में रचित है। इसमें चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा की चर्चा विस्तार से की गई है। यहाँ चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का अर्थ है चैतन्य केन्द्र को जागृत करना एवं चैतन्य का साक्षात्कार करना। हर समझदार व्यक्ति अपना विकास चाहता है । परन्तु वह कौन सी प्रक्रिया है जिसके द्वारा
१
यह रचना ‘नमस्कारस्वाध्याय' ( प्राकृत विभा.) के पृ. २२५ से २६० पर गुजराती अनुवाद एवं सात परिशिष्टों के साथ प्रकाशित है। यह रचना स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित है उसमें देहषट्कोणयन्त्र एवं अन्य दो यंत्र चित्र हैं इनमें से प्रथम यंत्रचित्र चौबीस तीर्थकरों की माताएँ अपने तीर्थंकर बनने वाले पुत्र की ओर देखती है उससे सम्बन्धित है, दूसरा ध्यान का बीसवां प्रकार परम मात्रा से सम्बन्धित है। यंत्रचित्र चौबीस वलयों से युक्त है। यह यंत्रचित्र 'नमस्कार स्वाध्याय' में भी उद्धृत है।
-
नमस्कारस्वाध्याय का मुद्रण 'जैन साहित्य विकास मण्डल' की ओर से सन् १६६१ में हुआ है। उद्घृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४ पृ. २५२
२
यह पंचम संस्करण, सन् १६६७, 'जैन विश्व भारती लाडनूं' से प्रकाशित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org