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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 385
का उल्लेख करते हुए कहा है कि बंध, बंध के हेतु, मोक्ष और मोक्ष के हेतु इन चार तत्त्वों में सारभूत तत्त्व मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यानपूर्वक ही होता है।
स्पष्टतः यह कृति ध्यानविधि को प्रस्तुत करने वाली बेजोड़ कृति है । इसमें व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के ध्यान का विशद वर्णन किया गया है। इस कृति का यह संदर्भित अंश 'नमस्कारस्वाध्याय' भा. २ में संग्रहीत है।
जिनरत्नकोश (पृ. १६६) में ध्यानविषयक जिन कृतियों का निर्देश हुआ है उनकी सामान्य जानकारी इस प्रकार है।
ध्यानचतुष्टयविचार - इस कृति के नामानुसार इसमें आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार प्रकार के ध्यान का निरूपण होना चाहिए। ध्यान दीपिका यह कृति मुनि सकलचन्द्र ने वि.सं. १६२१ में रची है। ध्यानदण्डकस्तुति - प्रस्तुत कृति ' संस्कृत भाषा में पद्यात्मक शैली में रचित है। इसका मुख्य विषय भी ध्यान-साधना का निरूपण करना है। ध्यानस्तव यह भास्करनन्दी की संस्कृत रचना है । ध्यानस्वरूप यह रचना वि.सं. १६६६ की है। इसमें भावविजयजी ने ध्यान का स्वरूप निरूपित किया है। ध्यानसार इस नाम की दो कृतियाँ हैं। एक के कर्त्ता यशःकीर्ति हैं, दूसरी के कर्त्ता का नाम अज्ञात है। ध्यानमाला यह नेमिदास की कृति है ।
ध्यानदीपिका
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इस ग्रन्थ के कर्त्ता खरतरगच्छीय दीपचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र है। इसकी रचना वि.सं. १७६६ में हुई है । यह ग्रन्थ तत्कालीन गुजराती भाषा में रचीत छह खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में अनित्य आदि बारह भावनाओं का, द्वितीय खण्ड में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय और पाँच महाव्रतों का, तृतीय खण्ड में पाँच समिति, तीन गुप्ति और मोह विजय का, चतुर्थ खण्ड में ध्यान और ध्येय का, पंचमखण्ड में धर्मध्यान, शुक्लध्यान, पिण्डस्थ आदि ध्यान एवं यंत्रों का तथा षष्ठम खण्ड में स्याद्वाद का निरूपण हैं । प्रस्तुत कृति का प्रारम्भ दोहे से किया गया है इसके पश्चात् ढ़ाल और दोहा इस क्रम से अवशिष्ट भाग रचा गया है। भिन्न-भिन्न देशियों में कुल ५८ ढ़ाल हैं ।
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यह ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्थाओं की ओर से प्रकाशित हुआ है।
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यह कृति श्रीमद देवचन्द्र ( भा. २) की, द्वितीय आवृत्ति में पृ. १ सं १२३ पर है। यह आवृत्ति 'अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल' से सन् १६२६ में प्रकाशित हुई है ।
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