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384/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
अवश्य देखना चाहिए। इसमें सामान्यतः व्यवहार ध्यान के आलम्बन एवं निश्चय ध्यान के आत्मालंबन का सुंदर वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ स्वयं ग्रन्थकार की अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ की शैली उत्तम हैं।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में एकाग्र मन पूर्वक पंचपरमेष्ठी के नमस्काररूप महामंत्र का जाप अथवा जिनेश्वर प्रणीत शास्त्रों के अध्ययन को सर्वोत्कृष्ट स्वाध्याय बतलाया गया है और कहा है कि आत्मा स्वाध्याय के द्वारा ही ध्यान में आगे बढ़ती है और ध्यान से स्वाध्याय विशेष होता है। इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय रूप संपत्ति से परमात्म तत्त्व का प्रकाश होता है।
सर्वप्रथम इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार प्रकार के ध्यान की चर्चा की गई है। १. नामध्यान - इस विधि के अनुसार अरिहंत परमात्मा का हृदय में ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान करने वाला साधक 'अ-सि-आ-उ-सा' इन परमेष्ठिओं के आद्य अक्षरों का चार दल वाले हृदयकमल में ध्यान करें। इसी प्रकार मति आदि पाँच ज्ञानों का ध्यान करें। 'नमो अरिहंताणं' इन सप्ताक्षर मंत्र का सात मुखछिद्रों में (दो कर्ण के, दो नासिका के, दो चक्षु के एवं एक मुख के छिद्र में) ध्यान करें। 'अ-क-च-ट-त-प-य-श' इन अक्षरों का अष्टदल कमल वाले हृदय में ध्यान करें। ये बीजाक्षर गणधरवलय (४८ लब्धिपद) से सहित और ह्रींकार से वेष्टित हैं, ऐसा चिंतन करना चाहिए। इसी क्रम में 'अ से ह' पर्यन्त अक्षरों का स्वचक्रों' पर ध्यान करें। इस ध्यान प्रक्रिया को प्रारम्भ करने के पूर्व उक्त अक्षरों को भूमिमंडल पर आलेखित करके उनकी पूजा करनी चाहिए। २. स्थापनाध्यान - शाश्वत और अशाश्वत जिन प्रतिमाओं का आगम में जैसा वर्णन किया गया है उनका वैसा ही शंका रहित ध्यान करना स्थापना ध्यान है। ३. द्रव्यध्यान - आत्मा, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः प्रकार के द्रव्यों के स्वरूप का चिंतन करना द्रव्य ध्यान है। ४. भावध्यान - अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधु के गुणों का स्मरण या चिंतन करना भाव ध्यान है।
इसके पश्चात् इसमें पूरक एवं रेचक प्राणायाम पूर्वक तथा मारुती-धारणा एवं जलीय धारणा पूर्वक अर्ह ध्यान करने की विधि कही गई है। तत्पश्चात् ध्यान का फल, ध्यान योग्य सामग्री, ध्यान के लिए मुख्य चार हेतुओं, ध्यानाभ्यास के लिए प्रेरक तत्त्व आदि का उल्लेख किया गया है। अंत में चार सारभूत तत्त्वों
' विशेष जानकारी के लिए देखें- श्री सिंहतिलकसूरिकृत 'परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प', नमस्कार स्वाध्याय पृ. १११ से १२६ तक
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