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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/533
'देवतावसर' शब्द का अर्थ है- सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक देव को विधिपूर्वक आमन्त्रित करना। यहां यह जानने योग्य है कि प्रत्येक मन्त्र के भिन्न भिन्न अधिष्ठायक देव होते हैं तथा उन-उन मन्त्रों की जाप साधना प्रारंभ करने से पहले उन-उन मन्त्रों के अधिष्ठायक देवों को आहान पूर्वक आमन्त्रित करना
और अपने सन्निकट उनकी स्थापना करना अनिवार्य स्वीकारा गया हैं, क्योंकि उन अधिष्ठायक देवों का आहान करने से वे देव जागृत होते हैं, जप साधना में सहयोगी बनते हैं, दुष्ट उपद्रवों से रक्षा करते हैं और जप साधना को निर्विघ्नतया सम्पन्न करने में निमित्त बनते हैं।
दूसरी बात यह उल्लेख्य हैं कि देवताओं का आगमन पवित्र वातावरण एवं शुद्ध स्थान में ही होता हैं अतः दैहिकशुद्धि, मानसिकशुद्धि व हृदयशुद्धि के साथ-साथ स्थलशुद्धि होना भी जरूरी है। इस कृति में वर्णित बीस द्वार पूर्वोक्त विषयों का ही उल्लेख करते हैं यथा -
पहला द्वार भूमिशुद्धि से सम्बन्धित है। दूसरा द्वार शरीर के पाँच अंगों का न्यास करने से सम्बन्धित है। तीसरा द्वार सकलीकरण की विधि का विधान करता है। चौथे द्वार में दशदिक्पालों की आझन विधि कही गई है। पाँचवे द्वार में हृदयशुद्धि का विधान बताया गया है। छठा द्वार मन्त्रस्नान से सम्बन्धित है। साँतवे द्वार में कल्मषदहन की प्रक्रिया बतायी गई है। आठवाँ द्वार पंचपरमेष्ठी की स्थापना विधि का उल्लेख करता है। नौंवे द्वार में आहान करने की विधि दिखलायी गई हैं। दशवाँ द्वार स्थापना विधि से सम्बन्धित है। ग्यारहवें द्वार में सन्निधान विधि का उल्लेख हुआ है। बारहवें द्वार में सन्निरोध विधान की चर्चा की गई है। तेरहवाँ द्वार अवगुंठन मुद्रा का स्वरूप दिखलाता है। चौदहवाँ द्वार छोटिका अर्थात चुटकी बजाने से सम्बन्धित है। पन्द्रहवें द्वार में अमृतकरण की विधि वर्णित है। सोलहवाँ द्वार जाप विधि से सम्बन्धित है। सतरहवाँ द्वार क्षोभण अर्थात् देवी-देवताओं की नाराजगी दूर करने की विधि से सम्बद्ध है। अठारहवें द्वार में क्षमायाचना की गई है। उन्नीसवें द्वार में आमन्त्रित देव-देवियों को विसर्जित करने की विधि बतायी गई है। बीसवाँ द्वार स्तुति पाठ ये युक्त है। इस कृति के अन्तिम भाग में सूरिमन्त्र का माहात्म्य बताया गया है। पाँच पीठ की आम्नाय विधि कही गई है तथा बारह प्रकार की मुद्राओं का स्वरूप बताया गया है जो प्रतिष्ठादि एवं जपादि के समय विशेष रूप से प्रयुक्त होती है।
यहाँ ज्ञातव्य है कि यह कृति मन्त्रराजरहस्य के पंचम परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुई है। डॉ. सागरमलजैन के अनुसार इसके अन्त में लेखक का नाम नहीं है। श्री दैवोत में 'जैन मंत्र शास्त्रों की परम्परा एवं स्वरूप' नामक लेख में
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