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________________ 352 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य क्षिप्तचित्त श्रमणी के लिए किन यतनाओं का पालन आवश्यक है? आदि प्रश्नों का विचार करते हुए भाष्यकार ने उन्माद, उपसर्ग, क्लेश, प्रायश्चित्त, भक्तपान आदि विषयों की दृष्टि से निर्ग्रन्थी विषयक विधि - निषेध, प्रतिपादन किया है। अन्त में प्रस्तुत भाष्य की समाप्ति करते हुए कल्पाध्ययन शास्त्र के अधिकारी और अनधिकारी का संक्षिप्त निरूपण किया गया है। बृहत्कल्प लघुभाष्य के इस सारग्राही संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट हैं कि इसमें जैन साधुओं के आचार विचार एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधान का अत्यन्त सूक्ष्म एवं गहन विवेचन किया गया है। विवेचन के कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिनका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अच्छा अध्ययन हो सकता है। तत्कालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों पर प्रकाश डालने वाली सामग्री का भी इसमें बाहुल्य है। इन सब दृष्टियों से भारतीय साहित्य के इतिहास में प्रस्तुत भाष्य का निःसन्देह एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह कहना सर्वथोचित होगा कि जैन विधि-विधान परक एवं आचार परक साहित्य पर संघदासगणि महत्तर का महान् उपकार रहा है। जिन्होंने इस प्रकार के समृद्ध, सुव्यवस्थित एवं सर्वांगसुन्दर ग्रन्थ का निर्माण किया । बृहत्कल्प - बृहद्भाष्य यह भाष्य बृहत्कल्प - लघुभाष्य से आकार में बड़ा है। यह बात इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाती है। दुर्भाग्य से यह अपूर्ण ही उपलब्ध है। इसमें पीठिका और प्रारम्भ के दो अध्ययन तो पूर्ण हैं किन्तु तृतीय उद्देशक अपूर्ण है। अन्त में तीन उद्देशक अनुपलब्ध हैं। प्रस्तुत भाष्य में लघुभाष्य समाविष्ट है। इस बृहद्भाष्य के प्रारंभ में ऐसी कुछ गाथाएँ हैं जो लघुभाष्य में बाद में आती है। बृहद्भाष्यकार ने लघुभाष्य की कुछ गाथाएँ बिना किसी व्याख्यान के वैसी की वैसी उद्घृत की है। इस भाष्य में कई ऐसे उद्धरण हैं जिन्हे देखने से लगता है कि इस बृहद्भाष्य में लघुभाष्य के विषयों का ही विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। ऐसी दशा में पूरा बृहद्भाष्य का विशालकाय ग्रन्थ होना चाहिए जिसका कलेवर लगभग पन्द्रह हजार गाथाओं के बराबर हो। अपूर्ण उपलब्ध प्रति जो अनुमानतः सात हजार गाथा परिमाण है। ये गाथाएँ लघुभाष्य की गाथाओं (तीन उद्देशक ) से करीब दुगुनी है। संक्षेपतः यह कृति अधूरी उपलब्ध है। अतः मेरी शोध का जो विषय है उसका वर्णन करना शक्य नहीं है । तथापि यह निश्चित है कि इसमें लघुभाष्य की अपेक्षा और भी विधि - विधान समाहित है। Jain Education International a For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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