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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/353
बृहत्कल्पचूर्णि
यह चूर्णि मूलसूत्र एवं लघुभाष्य पर है। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में है। इस चूर्णि का वर्ण्य विषय वही है जो बृहत्कल्प मूलसूत्र का है। हम सूत्र एवं भाष्य दोनों के प्रतिपाद्य विषय की चर्चा पूर्व में कर चुके है। अतः यहाँ पुनः उल्लेख की आवश्यकता नहीं है।
विशेष इतना है कि प्रस्तुत चूर्णि में भाष्य के ही अनुसार पीठिका तथा छः उद्देशक हैं। पीठिका के प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने तत्त्वार्थाधिगम का एक सूत्र उद्धृत किया है। प्रस्तुत चूर्णि के प्रारम्भ का अंश दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के प्रारम्भ के अंश से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। भाषा की दृष्टि से भी दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचूर्णि से प्राचीन मालूम होती है। इसमें चूर्णिकार के नाम का कोई उल्लेख या निर्देश नहीं है। अन्त में इसका ग्रन्थाग्र ५३०० कहा है।' महानिशीथसूत्र
जैन आगमों में महानिशीथ का स्थान अनूठा और अनुपम है। उपधान तप की प्रामाणिकता को पुष्ट करने के सन्दर्भ में यह ग्रन्थ अधिक चर्चित हुआ है यह गद्य-पद्य मिश्रित प्राकृत भाषा में है। इसका ग्रन्थमान ४५५४ श्लोक परिमाण है। इसमें छ: अध्ययन और दो चूलिका है। इसके रचनाकार एवं इसका रचनाकाल ये दोनों ही विषय अनिर्णीत है।
देवेन्द्रमुनि ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि वर्तमान में जो महानिशीथ सूत्र है उसकी रचना विक्रम की आठवीं शती या उसके पश्चात् के समय को सूचित करती है। आज का महानिशीथ नन्दीसूत्र निर्दिष्ट महानिशीथ नहीं है। इसमें अनेकों विषय और परिभाषाएँ उस प्रकार की उपलब्ध हैं जो इस कृति को वि.सं. की आठवीं शती से पहले की प्रमाणित नहीं होने देती। साथ ही इस आगम में ऐसी अनेक बाते हैं जिसका मेल अंगसाहित्य से नहीं होता है अतः यह महानिशीथ एक स्वतंत्र कृति है और उसके कर्ता का नाम अज्ञात है। परम्परा की दृष्टि से वर्तमान महानिशीथ के पुनरुद्धारकर्ता आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से एवं विषय वैविध्य की दृष्टि से भी इस आगम की गणना अर्वाचीन आगमों में की जाती है। दूसरी बात यह है कि इसमें अनेक स्थलों पर
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर आधारित, भा-३, पृ. ३२३ २ प्रबन्ध परिजात, पृ. ७६, उदधृत-जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, देवेन्द्र मुनि, पृ. ४०८-६
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