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354/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
आगमेतर ग्रन्थों के उल्लेख व उद्धरण प्राप्त होते हैं।
मूलतः यह विधि-विधान परक ग्रन्थ है। इसमें उपधान विधि, प्रायश्चित्त विधि, तप विधि, शास्त्रोद्धार विधि, आलोचना विधि, कुशीलसंसर्ग वर्जन विधि इत्यादि का सम्यक् विवेचन हुआ है। अन्य भी आवश्यक बातें इसमें कही गई हैं। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - प्रथम अध्ययन- इसका नाम 'शल्योद्धरण' है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थ और अर्हन्तों को नमस्कार किया गया है। 'सुयं मे' वाक्य से विषय को प्रारम्भ किया है। उसके बाद वैराग्य की अभिवृद्धि करने वाली गाथाएँ हैं जिनमें साधक को शल्यरहित होना चाहिए इस बात पर बल दिया गया है। इसमें 'हयं नाणं' आदि आवश्यक नियुक्ति की गाथाएँ गृहीत की गई है।
आगे शास्त्रोद्धार की विधि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि श्रुतदेवता-विद्या का आलेखन कर एवं उसे मंत्रित कर शयन करने पर स्वप्न सफल होते हैं। तदनन्तर पापरूपी शल्य की निन्दा एवं आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानक बताये गये हैं। दूषित आलोचना के दृष्टान्त दिये गये हैं। मोक्ष प्राप्त करने वाली अनेक निःशल्य श्रमणियों के नाम दिये गये हैं। अपने अपराध को विधिपूर्वक न कहने वालों की एवं छुपाने वालों की दुर्गति होती है यह भी बताया गया है। द्वितीय अध्ययन - इसका नाम 'कर्मविपाक' है। इसमें शारीरिक आदि दुःखों का वर्णन है। स्त्री वर्जन का उपदेश दिया गया है और पापों की आलोचना पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्ययन - इसका नाम 'कुशील लक्षण' है। इसमें कुशील साधुओं के संसर्ग से दूर रहने का उपदेश दिया गया है। इसमें साथ ही इनमें नमस्कारमंत्र उपधान विधि जिनपूजा आदि का विवेचन है। मंत्र-तंत्र आदि अनेक विधाओं के नाम बताये हैं। यहाँ यह भी बताया है कि व्रजस्वामी ने व्युच्छिन्न पंचमंगल की नियुक्ति आदि का उद्धार करके इसे मूलसूत्र में स्थान दिया है। आचार्य हरिभद्र ने खण्डित प्रति के आधार से इसका उद्धार किया है। इनके पूर्ववर्ती युगप्रधान आचार्य सिद्धसेनदिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी क्षमाश्रमण आदि ने महानिशीथ को अत्यधिक महत्त्व दिया है, इससे सूचित होता है यह सूत्र आचार्य हरिभद्र के पूर्व भी विद्यमान था। नमस्कारमंत्र के पश्चात् इरियावहि आदि सूत्रों का निर्देश है। साथ ही उन सूत्रों की तपस्या विधि और उनसे होने वाले लाभ का उल्लेख है।
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