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चतुर्थ अध्ययन इसका नाम 'कुशील संसर्ग' है। इसमें शिथिल आचार का स्वरूप बताया गया है। साथ ही कहा है कि शिथिल आचार का समर्थन करना भी दोष है। उससे व्रत भंग होता है। कुशील के संसर्ग से अनन्त संसार की अभिवृद्धि होती है और उसके संसर्ग का जो परित्याग करता है उसे सिद्धि मिलती है।
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पंचम अध्ययन इस अध्याय का नाम 'नवनीतसार' है। इसमें गच्छ के स्वरूप का विवेचन हुआ है। विज्ञों का ऐसा मानना हैं कि गच्छाचार नामक प्रकीर्णक का मूल आधार प्रस्तुत अध्ययन है। इसमें दस आचार्यों का वर्णन है । द्रव्यस्तव करने वाले को असंयत बताया है। जिनालयों के संरक्षण और उनके जीर्णोद्धार की भी चर्चा की गई है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 355
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षष्टम अध्ययन
यह अध्ययन 'गीतार्थ विहार' नाम का है। इसमें प्रायश्चित्त के दस और आलोचना के चार भेदों का व्याख्यान है । दशपूर्वी नन्दीषेण के दृष्टान्त को उल्लिखित कर यह प्ररेणा दी गयी है कि दोष का सेवन होने पर प्रत्येक साधक को प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
इसमें प्रायश्चित्त की विधि भी बतायी गयी है। आरम्भ समारंभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। अगीतार्थ के विषय में लक्षणार्या का दृष्टान्त दिया गया है। इसमें आचार्य भद्र के एक गच्छ में पाँच सौ साधु एवं बारह सौ साध्वियाँ होने का उल्लेख भी है।
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प्रथम चूला यह प्रथम चूला 'एकान्त निर्जरा' नाम की है। इसमें प्रायश्चित्त विधान का विस्तृत प्रतिपादन हुआ है। उनमें प्रायश्चित्त को विधि पूर्वक क्यों अंगीकार करना चाहिये? अविधि का सेवन करने वाले जीव की क्या दुर्दशा होती है ? प्रायश्चित्त के कितने स्थान है ? किस आवश्यक की क्या विधि है ? चैत्यवंदनादि क्रियाएँ अविधिपूर्वक करने से क्या-क्या दोष लगते हैं? किस अपराध ( दोष - सेवन रूप पाप प्रवृत्ति आदि ) का क्या प्रायश्चित्त है ? इत्यादि का सुन्दर विवेचन हुआ है।
संक्षेपतः चैत्यवन्दन सम्बन्धी प्रायश्चित्त, स्वाध्याय में बाधा उपस्थित करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण के प्रायश्चित्त, ज्ञानाचार आदि के प्रायश्चित्त, भिक्षा सम्बन्धी प्रायश्चित्त कहे गये हैं। इसमें से 'प्रायश्चित्तसूत्र' विच्छिन्न हो गया है - यह चर्चा भी की गई है। विद्या मन्त्रों की भी चर्चा की गई है जो जलादि उपद्रवों से रक्षा करते हैं।
द्वितीय चूला
द्वितीय चूला का नाम सुसढ़ अणगारकहा है। इसमें विधिपूर्वक धर्माचरण की प्रशंसा की गई है। हिंसा के सम्बन्ध में सुसढ़ आदि
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