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356/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
की कथाएँ हैं। इसमें सतीप्रथा और राजा के पुत्रहीन होने पर कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का उल्लेख है।'
निष्कर्षतः यह विशालकाय ग्रन्थ है इसमें विविध विषयों का वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ में उल्लिखित बातें आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में प्रामाणिक रूप से स्वीकार की जाती है यही इस ग्रन्थ की विशिष्टता है। प्रायश्चित्त विधान की दृष्टि से तो इसकी मौलिकता स्वतः सिद्ध है। महानिशीथ पर कोई भी व्याख्या साहित्य नहीं लिखा गया है। व्यवहारसूत्र
जैनागमों में छह छेदसूत्रों का विशिष्ट स्थान माना गया है। उनमें व्यवहारसूत्रका तीसरा स्थान है। इसके रचयिता आर्य भद्रबाहु (प्रथम) को माना जाता है। इसका रचनाकाल ई.पू. तीसरी शती के लगभग है। यह सूत्र १० उद्देशकों में विभक्त है। इसमें उपलब्ध मूल पाठ ३७३ अनुष्टुप श्लोक परिमाण है और सूत्र संख्या २६७ है।
इस ग्रन्थ के दसवें उद्देशक के अंतिम (पाँचवें) सूत्र में पाँच व्यवहारों के नाम हैं। इस सूत्र का नामकरण भी पाँच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया है। मूलतः यह सूत्र प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान से सम्बद्ध है। व्यवहार सूत्र का व्युत्पत्ति अर्थ
व्यवहार शब्द वि+अव+ह+घञ् वर्णों से निष्पन्न बना है। 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग है। हृ-हरणे धातु है। 'ह' धातु से घञ् प्रत्यय लगने पर हार बनता है। वि+अवन+हार इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। यहाँ 'वि' विविधता या विधि का सूचक है। 'अव' संदेह का सूचक है। 'हार' हरष क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहार सूत्र के प्रमुख विषय -
इस सत्र के प्रमुख तीन विषय हैं - १. व्यवहार, २. व्यवहारी और ३. व्यवहर्त्तव्य। इस सूत्र के १० वें उद्देशक में प्रतिपादित पाँच प्रकार का व्यवहार करण (साधन) है, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (आचार्यादि) व्यवहारी अर्थात्
' यह ग्रन्थ महानिशीथ-सुय-खंद्यं के नाम से, सन् १९६४ में, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। २ यह ग्रन्थ मधुकर मुनि जी द्वारा सम्पादित है इसका प्रकाशन वि.सं. २०४८ में श्री आगमप्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार ब्यावर' से प्रकाशित हुआ है।
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