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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/351
के प्रक्षालन आदि से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, पात्र-विषयक विधि, उष्णोदक आदि से भावित कल्प्यपात्र और उनके ग्रहण की विधि, मात्रक-विषयक विधि, अपहृत निर्ग्रन्थी के परिपालन की विधि, अवहेलना आदि करने वाली श्रमणियों को विधिपूर्वक बाहर निकालने का विधान, प्रथम दीक्षा लेने वाले शिष्य के लिए चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु आदि की पूजा-सत्कार विधि, वर्षावास के क्षेत्र से निकले हुए श्रमण-श्रमणियों के लिए वस्त्रादि ग्रहण करने की विधि, वस्त्र विभाजन की विधि, आचार्यादि को वन्दन करने की विधि, विधि का विपर्यास करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त, आचार्य से पर्याय ज्येष्ठ को आचार्य वन्दन करे या नहीं उसका विधान, श्रेणिस्थितों को वन्दना करने की विधि, अपवाद रूप से पार्श्वस्थादि के साथ किन स्थानों में किस प्रकार के अभ्युत्थान और वन्दन का व्यवहार करना चाहिए इसकी विधि, सावधानी रखने पर भी उपकरण आदि की चोरी हो जाने पर उन्हें ढूंढने के लिए राजपुरुषों को विधिपूर्वक समझाने का कथन इत्यादि। चतुर्थ उद्देशक - इस अध्ययन में अनुद्घातिक आदि से सम्बन्ध रखने वाले सोलह प्रकार के सूत्र सम्बन्धी विधान प्रतिपादित हैं उनमें से कुछ ये हैं -
अनैषणीय आहार को प्रतिस्थापित करने की विधि, उपसम्पदा ग्रहण करने की विधि, मृत्युप्राप्त भिक्षु आदि के शरीर की परिष्ठापन विधि इत्यादि इसके अन्तर्गत १६ प्रकार के विधान बताये गये हैं। पंचम उद्देशक - इस उद्देशक में उपलब्ध विधि-विधान निम्न हैं - क्लेश की शान्ति न करते हुए स्वगण को छोड़कर अन्यगण में जाने वाले भिक्षु, उपाध्याय, आचार्य आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधि, क्लेश के कारण गच्छ का त्याग न करते हुए क्लेश युक्त चित्त से गच्छ में रहने वाले भिक्षु आदि को शान्त करने की विधि, वमनादि विषयक दोष, कारण, प्रायश्चित्त एवं उद्गार की दृष्टि से भोजन विषयक विविध यतनाएँ अपवाद आदि, जिस प्रदेश में आहार, जल आदि जीवादि से संसक्त ही मिलते हों, उस प्रदेश में अशिव दुर्भिक्ष आदि कारणों से जाना पड़े तो वहाँ आहार ग्रहण करने की विधि, उस प्रदेश में पानी के ग्रहण करने की विधि, उसके परिष्ठापन की विधि, अकेली रहने वाली निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष-प्रायश्चित्त, पात्ररहित निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष प्रायश्चित्त, परिवासित आहार की विधि इत्यादि। षष्टम उद्देशक - इस उद्देशक में वचन आदि से सम्बन्धित कुछ व्याख्यान किया गया है। साधु को बोलने के विषय में कैसा विवेक रखना चाहिए? श्रमण-श्रमणियों को दुर्गम मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्षिप्तचित्त हुई निर्ग्रन्थी को समझाने का क्या मार्ग है? क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी देख-रेख की क्या विधि है? क्षिप्तचित्त होने का क्या कारण है?
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