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________________ 284/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य भागों में विभक्त हैं। दोनों में क्रमशः ६३ एवं २७ कुल ६० गाथाएँ है। इस कृति के रचयिता वीरभद्र है। इस कृति का रचना काल दशवीं शताब्दी माना गया है। ___ यह कृति मुख्यतः चतुःशरण (अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म रूप चार उत्तम स्थानों की शरण) स्वीकारने की विधि से सम्बद्ध है। इसके साथ ही दुष्कृत की गर्दा और सुकृत की अनुमोदना करने की सामान्य विधि भी प्रतिपादित है। कुशलानुबंधीचतुःशरण में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है - इसमें सर्वप्रथम छः आवश्यकों के नामों का उल्लेख कर उनका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है तथा यह बताया गया है कि सामायिक से चारित्र शद्धि, चतुर्विंशति, जिनस्तवन से दर्शन विशुद्धि, वन्दन से ज्ञान की निर्मलता, प्रतिक्रमण से रत्नत्रय की शुद्धि, कायोत्सर्ग से तप की विशुद्धि तथा प्रत्याख्यान से वीर्य की शुद्धि होती है। आगे की गाथाओं में विविध विशेषणों के साथ अरिहंतादि चार की शरण ग्रहण करने की सामान्य विधि कही गई है इसके साथ ही दृष्कृत की गर्दा कैसे की जाए और सुकृत की अनुमोदना कैसे की जाए, इसका विधिवत् निरूपण किया गया है। अन्त में कहा गया है कि जो जीव चुतःशरण को सम्यक् रीति पूर्वक स्वीकार नहीं करता है वह मानव जीवन हार जाता है।' चतुःशरण प्रकीर्णक में भी आंशिक भिन्नता के साथ उपर्युक्त विषय की ही चर्चा की गई है। स्पष्टतः प्रस्तुत प्रकीर्णक आराधना एवं साधना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अरिहंतादि के प्रति समर्पण भाव, स्वकृत पापों के प्रति ग्लानि के भाव एवं पुण्य कार्यों के प्रति अनुमोदना के भाव जागृत करने के लिए यह कृति अवश्य पठनीय है। जिनशेखर श्रावक प्रति सुलस श्रावक आराधित आराधना ___ यह प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें ७४ गाथाएँ दी गई है। यह कृति समाधिमरण- अनशनव्रत ग्रहण करने से सम्बद्ध है। इसमें अन्तिम आराधना सम्बन्धी पांच विषयों पर चर्चा की गई है। अन्त में सर्व जीवों से क्षमायाचना, वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने एवं अनशनव्रत में स्थिर रहने का उपदेश दिया गया है। पूर्वोक्त पाँच विषयों के नाम निम्न हैं - १. अनशन की प्रेरणा, २. अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु का स्वरूप एवं उनकी वन्दना, ३. नमस्कार का माहात्म्य और मंगलचतुष्क का निरूपण, ४. आलोचना ' प्रकीर्णक साहित्यः मनन और मीमांसा, प्र. आगम, अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर पृ. १३-१४ २ पइण्णयंसुत्ताई, भा.. २, पृ. २३२-२३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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