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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/285
एवं व्रत ग्रहण का कथन। इन विषयों का संक्षेप वर्णन निम्न हैं - १. अनशन की प्रेरणा- इस विषय के अन्तर्गत मृत्यु के आसन्न होने पर अनशन ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है। २. अरिहंत-सिद्धादि का स्वरूप एवं वन्दना- इसमें अरिहंत की वन्दना के प्रसंग में अरिहन्त, अरूहंत, अरहंत नामों का अन्वयार्थ बताया गया है। अरिहंत का अन्वयार्थ चार प्रकार से किया गया है। सिद्ध के स्वरूप वर्णन प्रसंग में उन्हें सम्पूर्ण कर्मों को जलानेवाला, वर्ण गन्ध, रस-स्पर्शादि से रहित, जरा-मरण आदि से मुक्त कहा गया है। आचार्य का स्वरूप एवं उनकी वन्दना के प्रसंग में उन्हें पंचाचार का सम्यक् आचरण करने वाला कहा गया है। इन्हें जगत का तृतीय मंगल भी कहा है। उपाध्याय के स्वरूप और वन्दन क्रम में इन्हें ग्यारह अंग व बारह उपांग को पढ़ने-पढ़ाने वाला कहा गया है। साधु वन्दना के प्रसंग में साधु गुणों की चर्चा की गई है तथा पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रतिलेखना, प्रमार्जना, लोच आदि में अप्रमत्त रहने वाला कहा गया है। ३. नमस्कार का माहात्म्य और मंगल चतुष्क का निरूपण - इसके अन्तर्गत प्रस्तुत प्रसंग का सामान्य वर्णन किया गया है। ४. आलोचना एवं व्रत ग्रहण- इसमें आलोचना और व्रतोच्चारण विधि का सामान्य कथन किया गया है। सर्वजीव क्षमापना के प्रसंग में क्रमशः पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त, द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त, जलचर, थलचर, नभचर आदि विविध पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्यों, चार प्रकार के देवों, नैरयिक जीवों तथा चारों गतियों में प्राप्त चौरासीलाखयोनि के जीवों के प्रति कृत वैर के लिए मिथ्यादुष्कृत और उनसे क्षमापना करने का निर्देश है। अन्त में वेदना सहन और अनशन ग्रहण का उपदेश है।
उपर्युक्त विवेचन से यह सुज्ञात होता है कि यह प्रकीर्णक अनशनव्रत ग्रहण विधि का सम्यक् निरूपण करता है। नन्दनमुनिआराधित आराधना विधि
यह प्रकीर्णक' संस्कृत पद्य में है। इसमें ४० श्लोक निबद्ध है। उनमें । नन्दनमुनिकृत दुष्कृतगर्दा, समस्तजीव क्षमापना, शुभभावना, चतुःशरण का ग्रहण, पंच परमेष्ठी नमस्कार और अनशनव्रत का ग्रहण इस तरह छः प्रकार की आराधना विधि चर्चित है।
' पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४०-२४३
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