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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/95
दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम आचारचूला है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ६ अध्ययन हैं पर इसका ७ वाँ अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं जो प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्यायों की व्याख्या मात्र है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ३२३ सूत्र है आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में कुल ८०४ सूत्र है इन सूत्रों का परिमाण १८ हजार पद कहा गया है प्रथम श्रुतस्कन्ध में ५१ उद्देशक हैं 'महाप्ररिज्ञा' अध्ययन के ७ उद्देशक का लोप करने पर ४४ उद्देशक रहते हैं। द्वितीय श्रुतकन्ध में कुल २५ उद्देशक हैं।
यह ऊपर में कह चुके हैं कि आचारांगसूत्र आचारप्रधान ग्रन्थ है, इसलिए इसे सर्वप्रथम स्थान मिला है। इसकी महत्ता का दूसरा कारण यह भी बताया गया हैं कि अतीतकाल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सभी ने आचारांग का उपदेश दिया। वर्तमान में जो तीर्थकर महाविदेह क्षेत्र में विराजित हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देते हैं और भविष्यकाल में जितने भी तीर्थकर होंगे वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देगें।'
आचारांग का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'आचार' है इसमें आचार सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत किया है किन्तु प्रथम श्रुतस्कन्ध में आचारविधि का सूक्ष्म स्वरूप ही उपलब्ध होता है जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आचारविधि और आहारविधि की अच्छी विवेचना है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध' में उल्लिखित आचार पक्ष एवं आचारविधि का वर्णन इस प्रकार है - • शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में जीवसंयम, जीवों के अस्तित्व का
प्रतिपादन और उसकी हिंसा के त्याग करने का विधान बताया गया है। लोकविचय नामक द्वितीय अध्ययन में किन कार्यों को करने से जीव कमों से आबद्ध होता है और किस प्रकार की साधना करने से जीव कर्मों से मुक्त होता है इसकी सम्यक् विधि प्ररुपित है। शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन में श्रमण को अनुकूल और प्रतिकूल उपर्सग समुपस्थित होने पर सदा समभाव में रह कर उन उपसगों को
किस प्रकार सहन करना चाहिए इसका विधान कहा गया है। • सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन में यह प्रतिपादित हैं कि दूसरे साधकों
'(क) आचारांगचूर्णि - पृ. ३ (ख) आचारांग शीलांकगवृत्ति - पृ. ६ *आचारांगसूत्र - मधुकरमुनि
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