________________
96/ साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
• लोकसार नामक पंचम अध्ययन में कहा गया है कि इस विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे निस्सार हैं, केवल सम्यक्त्व ही सार रूप है। उसे प्राप्त करने के लिए मुनि को कैसा पुरुषार्थ करना चाहिए ? इत्यादि प्रकार क उपदेशविधि का निरूपण है।
•
के पास अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि लब्धियों के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को देखकर साधक सम्यक्त्व से जरा भी विचलित न बने और स्व स्वभाव में स्थित बना रहे।
•
धूत नामक षष्ठम अध्ययन में निर्देश है कि सद्गुणों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रमणों को किसी भी पदार्थ में आसक्त बनकर नहीं रहना चाहिये।
महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन में उल्लेख है कि संयम - साधना करते समय यदि मोहजन्य उपसर्ग उपस्थित हों तो उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिये, परन्तु साधना से विचलित नहीं होना चाहिये ।
विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन में विधि-विधान विषयक कुछ महत्वपूर्ण चर्चा प्राप्त होती है; जैसे- समनोज्ञ अमनोज्ञ आहार दान की विधि एवं निषेध, अकारण आहार निषेध का विधान, द्विवस्त्रधारी विधान, एक वस्त्रधारी श्रमण की आहार विधि, भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण, प्रायोपगमन अनशन की विधि, संलेखना की विधि इत्यादि ।
उपधानश्रुत नामक नवाँ अध्ययन में भगवान महावीर की साधना विधि का चित्रण करता है इसमें ध्यान-साधना, अहिंसा-चर्या, आसन - शय्या चर्या, निद्रात्याग चर्या, विविध उपसर्ग, स्थान- परीषह, शीत- परीषह, अचिकित्सा अपरिकर्म, तपचर्या एवं आहारचर्या का विशेष उल्लेख हुआ है।
उक्त विवेचन से स्वतः स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थ में संयमी जीवन को आचार और विचार से परिपुष्ट बनाने के लिए अन्य पक्षों के साथ-साथ विधि पक्ष पर भी बल दिया गया है।
आचारांग के द्वितीय श्रुतकन्ध में साध्वाचार का विस्तृत विवेचन है। इसमें मुनियों की भिक्षाचर्या, उनके ठहरने के स्थान वस्त्र, पात्र आदि का स्वरूप एवं उनके ग्रहण की विधि क्या है, इत्यादि विषयों का बहुत ही गंभीर विवेचन इसमें उपलब्ध होता है। यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलिकाओं में विभक्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org