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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 229
उसका पारिश्रमिक पूर्व ही निर्धारित कर देना चाहिए। उसे वह धनराशि में खर्च न कर सके। उसके बाद शुभमुहूर्त्त में जिनबिम्ब की विधिपूर्वक स्थापना, चार सधवा स्त्रियों द्वारा पौंखना विधि, बिम्ब की उत्कृष्ट पूजा एवं संघ की पूजा आदि करने का उल्लेख किया गया है।
६. यात्राविधि पंचाशक यह नौवां पंचाशक यात्रा करने की विधि से सम्बन्धित है। यहाँ यात्रा से अभिप्राय मोक्षरूपी फल प्रदाता जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा शोभायात्रा से है। इसमें जिनयात्रा से सम्बन्धित छः द्वार बताये गये हैं। वे ये हैं- १. दान २. तप ३. शरीर शोभा ४. उचित गीतनाद्य ५. स्तुति - स्तोत्र और ६. प्रोक्षणक |
इस पंचाशक में यह भी बताया गया है कि जैन धर्म में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक दिवस माने गये हैं 9. गर्भ में आगमन २. जन्म ३. अभिनिष्क्रमण ४. केवलज्ञान और ५. मोक्षप्राप्ति। इन कल्याणकों के दिनों में जिनेश्वर परमात्मा की शोभायात्रा निकालना श्रेयस्कर माना गया है। इन दिनों में शोभायात्रा करने से निम्न लाभ होते हैं- १. तीर्थंकरों का लोक में सम्मान होता है २. पूर्वपुरुषों द्वारा आचरित परम्परा का पालन होता है ३. देवों- इन्द्रों आदि द्वारा निर्वाहित परम्परा का अनुमोदन होता है ४. जिनमहोत्सव गंभीर एवं सहेतुक हैं- ऐसी लोक में प्रसिद्धि होती है । ५. जिन शासन की प्रभावना होती है और ६. जिनयात्रा में भाग लेने से विशुद्धि मार्गानुसारी गुणों के पालन करने सम्बन्धी अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं तथा विशुद्ध मार्गानुसारी गुणों के पालन से सभी वांछित कार्यों की सिद्धि होती है। अतः श्रद्धालु एवं सज्जन मनुष्यों को गुरुमुख से जिनयात्रा महोत्सव विधि को जानकर जिनयात्राओं का आयोजन करना चाहिए ।
१०. उपासकप्रतिमाविधि पंचाशक प्रस्तुत पंचाशक में उपासकप्रतिमा विधि का वर्णन किया गया है। इसमें हरिभद्रसूरि ने ग्यारह प्रतिमाओं के स्वरूप का वर्णन निम्न प्रकार से किया है
१. दर्शन प्रतिमा - शम - संवेगादि पाँच गुणों से युक्त और शंकादि अतिचारों से रहित होकर सम्यग्दर्शन का पालन करना दर्शन प्रतिमा है। २. व्रत प्रतिमा- स्थूल-प्राणातिपात विरमण आदि पाँच अणुव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करना व्रत प्रतिमा है । ३. सामायिक प्रतिमा - सावद्ययोग का त्याग करना, समभाव की साधना करना सामायिक प्रतिमा है । यह सामायिक व्रत श्रावक द्वारा एक मुहुर्त्त आदि की निर्धारित समयावधि के लिए किया जाता है । ४. पौषध - प्रतिमा - जिनदेव द्वारा प्राप्त विधि के अनुसार आहार, देहसंस्कार, अब्रह्मचर्य एवं सांसारिक आरम्भ-समारम्भ का त्याग करना पौषध प्रतिमा है । ५. कायोत्सर्ग-प्रतिमाउपर्युक्त चारों प्रतिमाओं की साधना करते हुए श्रावक को अष्टमी व चतुर्दशी के
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