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110 / साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
पिण्डनिर्युक्ति
पिण्डनिज्जुत्ति-पिण्डनिर्युक्ति नामक यह आगम चौथा मूलसूत्र' माना जाता है। कहीं ओघनियुक्ति को भी इसके स्थान पर माना जाता है। यह कृति महाराष्ट्री प्राकृत पद्य में है। इसमें ६७१ गाथाएँ है। इसके रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। यह निर्युक्ति दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्ययन 'पिंडैषणा' पर लिखी गई है। अत्यन्त विस्तृत हो जाने के कारण इसे 'पिण्डनिर्युक्ति' के नाम से एक अलग ही ग्रन्थ स्वीकार कर लिया गया है। इसमें निर्युक्ति और भाष्य की गाथाएँ एक दूसरे में मिल गई हैं।
वस्तुतः यह ग्रन्थ श्रमण की 'आहारविधि' से सम्बन्धित है और यह बात इस ग्रन्थ के नाम से भी स्पष्ट होती है । पिण्ड का अर्थ है- भोजन । पिण्डनिर्युक्ति में अशन, पान, खादिम और स्वादिम इस सभी के लिए पिण्ड शब्द व्यवहृत हुआ है। श्रमण के ग्रहण करने योग्य आहार को पिण्ड कहा गया है। इस ग्रन्थ में ' आहार विधि' से सम्बन्धित आठ अधिकार कहे गये हैं वे ये हैं- 9. उदगम २. उत्पादना ३. एषणा ४. संयोजना ५. प्रमाण ६. अंगार ७. धूम और ८. कारण । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में किसी को नमस्कार किये जाने का उल्लेख नहीं है। उक्त आठ अधिकार के नाम निर्देश के साथ ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। इसमें आगे पिंड के नौ प्रकार बताये गये हैं - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इन नौ के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद किये गये हैं, किन्तु मुनि के लिए शिष्य के अतिरिक्त अचित्त पिण्ड ही ग्राह्य होता हैं। इनमें सर्पदंश के जहर का शमन करने के लिए बेइन्द्रिय में सीप, शंख आदि के मृतशरीर, दीमकों के गृह की मिट्टी, वमन की उपशान्ति के लिए मक्खी की विष्टा, टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए चर्म, अस्थि, दाँत, नख, पथभ्रष्ट श्रमण को बुलाने के लिए सींग और कुष्ठ आदि रोगों के निवारणार्थ गोमूत्र आदि के उपयोग श्रमण के लिए विहित बताये गये हैं। मिश्रपिण्ड में सौवीर ( कांजी), गोरस, आसव, बेसन ( जीरा, अचित्त नमक आदि ) औषधि तेल आदि अचित्त शाकफल, अचित्त लवण, गुड और ओदन का उपयोग होता है।
तदनन्तर आहारविधि में लगने वाले दोषों की चर्चा करते हुए सोलह उदगम, सोलह उत्पादन एवं दस एषणा के दोष कहे गये हैं तथा
मुख्यतः साधुओं के पिण्ड (भोजन) सम्बन्धी वर्णन होने के कारण इसकी गणना छेदसूत्रों में भी की जाती है।
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पिण्डनिर्युक्ति, गा. ६
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