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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 111
आहार ग्रहण एवं आहार प्रदान करते प्रदान समय कौन से दोष, किसके द्वारा, किस प्रकार लगते हैं इत्यादि का भी निरूपण हुआ है इसमें उपलब्ध विवरण संक्षेप में इस प्रकार है
उद्गमदोष - इसमें उद्गम का अर्थ है जो दोष बनाते समय लगते हैं । १६ उद्गम सम्बन्धी दोषों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं १. आधाकर्म- दानादि के निमित्त तैयार किया हुआ भोजन साधु को प्रदान करना आधाकर्म है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इस दोष का वर्णन कई भेद-प्रभेदों के साथ हुआ है। ( ६४ - २१७) २. औद्देशिक- साधु के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन साधु को देना ( २१८ - २४२) ३. पूर्तिकर्म - पवित्र वस्तु में अपवित्र वस्तु को मिलाकर देना ( २४३-७० ) ४. मिश्रजात - साधु और कुटुम्बीजनों के लिए एकत्र बनाया हुआ भोजन प्रदान करना (२७१-७६) ५. स्थापना - साधु को देने के लिए अलग से रखी हुई वस्तु देना ( २७७ - ८३ ) ६. प्रभृतिका बहुमान पूर्वक साधु को दी जाने वाली भिक्षा ( २८४ - ६१) ७. प्रादुष्करण- मणि आदि का प्रकाश कर अथवा भित्ति आदि को हटाकर प्रकाश करके दी जाने वाली भिक्षा ( २६२ - ३०५ ) ८. क्रीत - साधु के निमित्त खरीदी हुई वस्तु उसे प्रदान करना ( ३०५ - ३१५) ६. प्रामित्य साधु के निमित्त उधार लेकर वस्तु देना ( ३१६- ३२२ ) १०. परिवर्तित साधु के लिए बदलकर ली हुई वस्तु देना ( ३१३ - ३२८) ११. अभ्याहत - अपने अथवा दूसरों के ग्राम से लायी हुई वस्तु देना ( ३२६-३४६ ) १२. उद्भिन्न- लेप आदि हटाकर प्राप्त की हुई वस्तु देना ( ३४७ - ३५६ ) १३. मालापहृत- साधु के लिए ऊपर चढ़कर लायी हुई वस्तु प्रदान करना ( ३५६ - ३६५) १४. आच्छेद्य- धु के लिए दूसरों से छीनकर लायी हुई वस्तु प्रदान करना ( ३६६-७६) १५. अनिसृष्ट- जिस वस्तु के बहुत से मालिक हों वह उनकी अनुमति के बिना देना ( ३७७-८७) १६. अध्यवपूरक - साधु के लिए अतिरिक्त रूप से भोजन आदि का प्रबन्ध करना ( ३८८-६१ ) उक्त ये सोलह दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं।
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उत्पादनादोष - इसमें उत्पादना से सम्बन्धित सोलह दोष कहे गये हैं जो निम्न हैं १. धात्रीपिण्डदोष- धात्री का कार्य करके भिक्षा प्राप्त करना धात्री दोष है । ( ४१० - ४२७)। २. दूतीपिण्डदोष- समाचारों का आदान-प्रदान कर भिक्षा प्राप्त करना दूती दोष है ( ४२८ - ४३४ )। ३. निमित्तपिंडदोष - भविष्य आदि बताकर भिक्षा प्राप्त करना निमित्त दोष है (४३५-४३६ ) । ४. आजीवकपिंडदोष- जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प की समानता बताकर भिक्षा ग्रहण करना आजीवकपिंड दोष है ( ४३७- ४२ ) । ५. वनीपकपिंडदोष - श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान ये पाँच प्रकार के वनीपक
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