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112/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
बताये गये हैं इनमें श्रमण आदि का भक्त बनकर भिक्षा लेना वनीपक दोष है। ६. चिकित्सापिंडदोष- किसी की चिकित्सा करके भिक्षा प्राप्त करना चिकित्सा दोष है (४५६-६०)। ७-१०. क्रोध-मान-माया-लोभपिंड दोष- क्रोध द्वारा, अभिमान द्वारा, माया द्वारा, लोभ द्वारा भिक्षा प्राप्त करना (५६१-८३)। ११. पूर्व-पश्चात् संस्तवदोष- भिक्षा के पूर्व दाता की प्रशंसा कर आहार ग्रहण करना अथवा भिक्षा के बाद दाता की प्रशंसा द्वारा आहार प्राप्त करना (५८४-६३)। १२. विद्यापिंडदोष- कई प्रकार की विद्याओं के द्वारा आहार प्राप्त करना विद्यापिंड दोष है (५६४-६६)। १३. मन्त्रपिंड दोष- मन्त्र द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मन्त्रपिंड दोष है। यहाँ पर प्रतिष्ठानपुर के राजा मुरुण्ड की शिरोवेदना दूर करने वाले पादलिप्तसूरि का उदाहरण दिया गया है। १४. चूर्णपिंडदोषचूर्ण प्रयोग द्वारा भिक्षा प्राप्त करना इसमें दो क्षुल्लकों का दृष्टान्त दिया है। १५. योगपिंडदोष- विद्या आदि सिद्ध कर आहार प्राप्त करना इसमें समित सूरि का उदाहरण दिया है। १६. मूलकर्मपिंडदोष- वशीकरण द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मूलकर्म- पिंडदोष है। इसके लिए जंघापरिनित नामक साधु का उदाहरण दिया गया है। (५००-१२)। उक्त सोलह उत्पादना दोष साधु के द्वारा लगते है। एषणादोष- एषणा संबंधी दस दोष ये हैं - १. शंकितदोष- शंकायुक्त चित्त से भिक्षा ग्रहण करना शंकित दोष है (५२१-३०)। २. प्रक्षितदोष- सचित्त पृथ्वी आदि अथवा घृत आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना प्रक्षितदोष है (५३१-३६)। ३. निक्षिप्तदोष- सचित्त के ऊपर रखी हुई वस्तु ग्रहण करना निक्षिप्तदोष है (५४०-५७) ४. पिहितदोष सचित्त से ढकी हुई वस्तु ग्रहण करना पिहितदोष है (५५८-६२)। ५. संहृतदोष- अन्यत्र रखी हुई वस्तु को ग्रहण करना संहृतदोष है (५६३-७१)। ६. दायकदोष- बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कांपते हुए शरीर वाला, ज्वर से पीड़ित, अंधा, कोढ़ी, खड़ाऊ पहना हुआ, हाथो और पाँव में बेड़ी पहना हुआ, हाथ-पाँव रहित, नपुंसक, गर्भिणी, जिसकी गोद में शिशु हो, भोजन करती हुई, दही बिलोती हुई, चने आदि भूनती हुई, आटा पीसती हुई चावल कूटती हुई, तिल आदि पीसती हुई, रूई धुनती हुई, कपास ओटती हुई, कातती हुई, पूनी बनाती हुई, छः काय के जीवों को भूमि पर रखती हुई, उन पर गमन करती हुई, उनको स्पर्श करती हुई, हाथ दही आदि से सने हों- इत्यादि दाताओं से भिक्षा ग्रहण करना दायकदोष है। (५७२-६०४)। ७. उन्मिश्रदोष- पुष्प आदि से मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्रदोष (६०५-८)। ८. अपरिणतदोष- अप्रासुक भिक्षा ग्रहण करना अपरिणतदोष है (६०६-१२)। ६. लिप्तदोष- दही आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना लिप्तदोष है (६२७-२८)। १०. छर्दितदोष- टपकता हुआ
' श्रमण पाँच प्रकार के कहे गये हैं - निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, परिव्राजक और आजीवक
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