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634/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
का उत्तरार्ध होना चाहिए। यह समय ग्रन्थकार की स्वर्गतिथि के आधार पर निकाला गया है। उनका स्वर्गवास वि.सं. १३२७ में हुआ है। मूलतः चैत्यवंदनभाष्य अपने नाम के अनुरूप जिनमन्दिर सम्बन्धी विधि-विधानों का अति विस्तार के साथ निरूपण करता है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में सभी सर्वज्ञों को वन्दन करके वृत्ति, भाष्य, चूर्णि आदि श्रुत के अनुसार चैत्यवन्दनादि विधि को सम्यक् प्रकार से कहने की प्रतिज्ञा की है। उसके बाद चैत्यवन्दन (देववन्दन) विधि सम्बन्धी चौबीस द्वारों का नामोल्लेख करते हुए उन्हीं का विस्तृत विवेचन किया गया है। उन चौबीस द्वारों का नाम निर्देश पूर्वक संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है१. दसत्रिक - इस प्रथम द्वार में दस त्रिक - तीन बार 'निसीहि' कब, बोलना चाहिये तीन प्रदक्षिणा, तीन प्रणाम, तीन प्रकार की पूजा, तीन अवस्थाओं का चिन्तन, तीन दिशाओं का निरीक्षण, तीन प्रकार से भूमि प्रमार्जन, तीन प्रकार की मुद्रा और तीन प्रकार का प्रणिधान किस प्रकार करना चाहिए, इसकी सम्यक् विधि कही गई है। २. पाँच अभिगम - इस द्वार में १. सचित्त का त्याग, २. अचित्त आभूषणादि के त्याग रहित, ३. मन की एकाग्रता, ४. एक पट्ट का उत्तरासन और, ५. प्रभु का दर्शन होते ही मस्तक झुकाना इन पाँच प्रकार के अभिगम (विशेष नियम) पूर्वक जिनप्रतिमा के दर्शन करने का विधान बतलाया है। ३. दिशा - इसमें कहा गया हैं कि जिन प्रतिमा के दर्शन-वन्दन करते समय पुरुष एवं स्त्री को प्रतिमा की किस दिशा की ओर खड़े रहना चाहिए? ४. अवग्रह - चतुर्थ द्वार में चैत्यवन्दन करते समय जघन्य से नौ हाथ, उत्कृष्ट से साठ हाथ और मध्यम से नौ-साठ हाथ बीच की दूरी पर बैठकर चैत्यवंदन करना चाहिए यह विधान निर्दिष्ट किया है। ५. त्रिविधचैत्यवन्दन - इसमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन प्रकार की चैत्यवन्दन विधि कही गई है। ६. पंचांगप्रणिपात - इस द्वार में पंचांग प्रणिपात का स्वरूप बताया है। ७. नमस्कार - इसमें एक, दो, तीन से लेकर १०८ श्लोक तक प्रभु की स्तुति करने का विधान स्पष्ट किया है। ८-१०. अक्षर-पद-संपदा - इन तीन द्वारों में नवकार आदि नौ सूत्रों के वर्ण की संख्या, उन सूत्रों के पदों एवं सम्पदा की संख्या कही गई है।
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