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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 633 कहा गया है। पाँचवें - छठे द्वार में वन्दन के चार अदाता और चार दाता कहे हैं अर्थात् माता, पिता, ज्येष्ठ भाई आदि दीक्षित हो और दीक्षा पर्याय में छोटे हो तो उनसे तथा रत्नाधिक साधु से ( इन चार से) वन्दन नहीं करवाना चाहिए। इसके साथ ही व्याकुल चित्तवाले, आहारर - नीहार करते हुए साधु को भी वन्दन नहीं करना चाहिए। सातवे द्वार में वन्दन निषेध के तेरह स्थान बताये हैं। आठवें द्वार में वन्दन करने के चार स्थान कहे हैं। नौवें द्वार में गुरु को वन्दन करने के आठ कारणों का निर्देश दिया गया है। दशवें द्वार में द्वादशावर्त्तवन्दन के पच्चीस आवश्यक कहे गये हैं। ग्यारहवें द्वार में मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना विधि एवं उसके पच्चीस बोल वर्णित हैं। बारहवें द्वार में शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस बोल प्रतिपादित हैं। तेरहवें द्वार में वन्दना के समय लगने वाले बत्तीस दोषों की चर्चा की गई हैं। चौदहवें द्वार में विधिपूर्वक वन्दना करने से उत्पन्न होने वाले छह गुण बताये गये हैं। पन्द्रहवें द्वार में गुरु की स्थापनाविधि और गुरु की स्थापना के पाँच प्रकार निर्दिष्ट किये हैं। सोलहवें द्वार में तीन प्रकार के अवग्रह वर्णित है। यहाँ अवग्रह से तात्पर्य - गुरु भगवन्त से कम से कम, अधिक से अधिक और मध्यम रूप से कितना दूर बैठना चाहिए उसका क्षेत्र निर्धारण करना है। सत्रहवें - अठारहवें द्वार में वंदनविधि संबंधी सूत्रों के अक्षरों एवं पदों की संख्या का निरूपण हुआ है। उन्नीसवें द्वार में वन्दन करने वाले शिष्य के छह स्थान कहे गये हैं। बीसवें द्वार में वन्दन करने योग्य गुरु के छह वचन कहे गये हैं। इक्कीसवें द्वार में गुरु सम्बन्धी तैंतीस आशातनाओं का विवेचन हुआ है। बाईसवें द्वार में प्रातःकालीन एवं सायंकालीन गुरुवन्दन की विधि निर्दिष्ट की गई है। ' संक्षेपतः यह कृति गुरुवन्दनविधि विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है । ग्रन्थकार ने इस लघुकृति में भी समुद्र सा ज्ञान उंडेरा है। श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में यह ग्रन्थ विशेष चर्चित और अध्ययन-अध्यापन का आधार बना हुआ है। आवश्यकसूत्रों का अध्ययन करवाये जाने के बाद क्रमशः चार प्रकरण, तीन भाष्य (चैत्यवन्दन, गुरुवंदन, प्रत्याख्यान ) छः कर्मग्रन्थ आदि का अध्ययन करना - करवाना अनिवार्य सा माना गया है। चेइअवंदणभास (चैत्यवन्दनभाष्य ) यह रचना तपागच्छ के संस्थापक जगच्चन्द्रसूरि के पट्टधर शिष्य देवेन्द्रसूरि की है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत पद्य की ६३ गाथाओं में गुम्फित है। इस कृति का रचनाकाल १४ वीं शती का पूर्वार्ध या १३ वीं शती १ यह कृति 'श्री जैन श्रेयस्कर मंडल - महेसाणा' से वि.सं. २००६, प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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