________________
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/559
किया गया है। नमस्कारचक्र का आलेखन किस कलम से, कौनसे पट्ट या पात्र पर, किन सामग्री के द्वारा- किस विधि पूर्वक करना चाहिए इसका भी निर्देश दिया गया है। तत्पश्चात् इस चक्र की साधना करने योग्य साधक के लक्षण बताते हुए निर्दिष्ट चक्र की ध्यानविधि का निरूपण किया गया है। ध्यान विधि के अन्तर्गत साधक को पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठना चाहिए, गोबर से लींपी हुई तथा तीर्थजलों से सिंचित की हुई पवित्र भूमि पर बैठना चाहिए, शरीर का मंत्रपूर्वक रक्षा कवच बनाना चाहिए, दिग्बंधन करना चाहिए, सभी गणधरों का आह्वान करना चाहिए, समवसरणस्थ महावीर स्वामी को साक्षात् देखना चाहिए इत्यादि कृत्यों का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर ध्यानविधि का फल बताया गया है। अन्त में कर जप यानि अंगुली पर जाप करने के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण सूचन किया गया हैं। इसमें लिखा हैं कि मोक्ष के लिए अंगुष्ठ द्वारा, अभिचार के लिए तर्जनी द्वारा, मारण के निमित्त मध्यमा द्वारा, शांति हेतु अनामिका द्वारा, और आकर्षण के लिए कनिष्ठा अंगुली द्वारा जप करना चाहिए और वह जप अक्षसूत्र की माला से करना चाहिए। स्पष्टतः यह स्तोत्र नमस्कारमंत्र की साधना करने वाले साधकों के लिए पठनीय एवं आराधना करने योग्य है। लघुविद्यानुवाद
यह यन्त्र, मन्त्र और तन्त्र विद्या का एक मात्र संदर्भ ग्रन्थ है। विद्यानुवाद आदि की हस्तलिखित प्रतों और हस्तलिखित गुटकों के आधार पर यह ग्रन्थ तैयार किया गया है। यह पाँच खण्डों में विभाजित है। इसके प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में ऋषभादि चौबीस तीर्थंकर की वंदना की गयी है। तदुपरान्त मन्त्र साधक के लक्षण, सकलीकरण, मन्त्रसाधनविधि, मन्त्रजापविधि, मन्त्रशास्त्र में अकडमचक्र का प्रयोग, मुहर्त कोष्ठक, मन्त्र सिद्ध होगा या नहीं यह जानने की विधि, मंडलों का नक्शा आदि वर्णित है।
द्वितीय खंड में स्वर-व्यंजनों का स्वरूप एवं शक्ति, विभिन्न रोगों व कष्टों के निवारण हेतु ५०८ मंत्र विधिसहित दिये गये हैं। तृतीय खंड में यंत्र लिखने एवं बनाने की विधि, यंत्र की महिमा, छंद का भावार्थ, शकुन्दापन्दरिया यन्त्र, मनोकामनासिद्धि यन्त्र आदि विभिन्न यन्त्र चित्र सहित दिये गये हैं। चतुर्थ खंड में प्रत्येक तीर्थकर काल में उत्पन्न शासन रक्षक यक्ष-यक्षिणियों के चित्रसहित स्वरूप एवं होमविधान दिये गये हैं। पंचम खंड में विभिन्न तन्त्रों के माध्यम से इष्ट सिद्धि का वर्णन किया गया है, अतएव इसे तन्त्राधिकार भी कहा गया है।'
' उद्धृत- जैन धर्म और तान्त्रिक साधना, पृ. ३३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org