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254 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
बतायी गयी है । २२ से २६ वें द्वार तक तरतमता की अपेक्षा से वाचनाचार्य, उपाध्याय आचार्य, प्रवर्त्तिनी एवं महत्तरापदस्थापना की विधियों का वर्णन किया गया है। क्रमबद्धता की दृष्टि से जब आगमादि का पूर्ण ज्ञाता होकर यथायोग्य गुणवान बन जाए, तब उस श्रमण की शास्त्र निर्दिष्ट योग्यता को ध्यान में रखते हुए वाचनाचार्य आदि का पद प्रदान करना चाहिये और साध्वी को प्रवर्त्तिनी अथवा महत्तरा की पदवी देनी चाहिये । २७ वें द्वार में 'गणानुज्ञा विधि' बतलायी गयी है। आचार्य के कालधर्म को प्राप्त होने पर या अन्य किसी तरह से असमर्थ हो जाने पर गण के संचालन हेतु 'गणानुज्ञा' पद प्रदान किया जाता है। इसलिए पदस्थापना विधि के क्रम में ही प्रस्तुत - विधि को भी संयुक्त कर दिया गया है।
तदनन्तर २८ वें द्वार में 'अनशन विधि' का स्वरूप प्रतिपादित है। चूंकि अनेक प्रकार की आराधना - साधना - सेवा - तपस्या को करते हुए वृद्ध होने पर और जीवन का अन्त समीप दिखाई देने पर साधु और श्रावक दोनों को अनशन आराधना करनी चाहिए । २६ वें द्वार में 'महापरिष्ठापनिका विधि' का प्ररूपण किया गया है। पूर्वोल्लिखित विधियों के क्रम में अन्तिम आराधना के बाद, आयुष्य के पूर्ण होने पर जब साधु कालधर्म को प्राप्त हो जायें, तब उसके शरीर का अन्तिम संस्कार किस प्रकार किया जाना चाहिये, यह बताया गया है। तत्पश्चात् ३० वें द्वार में ‘प्रायश्चित्त और आलोचना' विधि का सविस्तृत निरूपण किया गया है । यहाँ से लेकर ४१ वें द्वार पर्यन्त की विधियों का उल्लेख विशेषक्रम से न होकर उनकी उपादेयता को दृष्टि में रखकर किया गया है। वैसे प्रायश्चित्त और आलोचना का आसेवन एवं ग्रहण साधक जब चाहे तब कर सकता है। इसके लिए कोई निश्चित आयु, समय अथवा दिन की अपेक्षा नहीं होती है। इसलिए बाद के क्रम में इसका विवरण सर्वप्रथम प्रस्तुत किया गया है।
३१ से लेकर ३६ वें द्वार तक 'प्रतिष्ठाविधि' नामक प्रकरण की रचना की गई है। जो सभी दृष्टियों से उपयोगी और उचित प्रतीत होती है । ३७ वे द्वार में 'मुद्राविधि' का प्रतिपादन किया है जो पूर्वापेक्षा से क्रमपूर्वक ही है। क्योंकि प्रतिष्ठा और तत्सम्बन्धी बहुत सी क्रियाओं में मुद्राओं का प्रयोग अनिवार्य रूप से होता है इसलिए प्रतिष्ठा के पश्चात् मुद्राओं के स्वरूपों का कथन किया गया है । ३८ द्वार में 'चौसठ योगिनीउपशम विधि' का निरूपण है यह भी क्रमपूर्वक ही है। क्योंकि नन्दीरचना और प्रतिष्ठा विषयक क्रियाओं में ६४ योगिनियों के यन्त्रादि का आलेखन किया जाता है इसलिए प्रतिष्ठाविधि के पश्चात् इसका उल्लेख किया गया है । ३६ वें द्वार में 'तीर्थयात्रा विधि' का कथन है। जब मन्दिर निर्माण और प्रतिष्ठादि कृत्य सम्पन्न हो जायें, तब
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