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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/253 १२ वें द्वार में 'नन्दिरचना विधि' का निरूपण है जो क्रमसूची में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसके पूर्व निर्दिष्ट किये गये सम्यक्त्वारोपण, बारहव्रतारोपण, उपधानविधि, तपविधि आदि विधान नन्दिरचना पूर्वक ही निष्पन्न होते हैं अतः यहाँ नन्दिरचना का उल्लेख करना योग्य है। १३ वें द्वार में प्रव्रज्या (दीक्षा) विधि का वर्णन है। जब साधक देशविरति का अनुपालन करने तथा तपस्यादि करने में सक्षम बन जाये, तब उसको सर्वविरति में प्रविष्ट होना चाहिए। इसी हेतु पूर्वक दीक्षाविधि को वर्णित किया है। १४ वें द्वार में 'केशलूंचन विधि' वर्णित है क्योंकि दीक्षा के समय प्रमुख रूप से केशलूंचन की प्रक्रिया होती है। अतः यहाँ इसका निर्देश पूर्वक्रम से पूर्णतः मेल खाता है। १५ वें द्वार में 'उपयोग विधि' को निरूपित किया है, क्योंकि दीक्षित बनने के बाद साधु समस्त क्रियाएँ उपयोगपूर्वक अर्थात् सावधानी पूर्वक सम्पन्न करें। जैन धर्म में यतनापूर्वक की गई क्रियाएँ अल्पबन्ध कारक होती हैं, क्योंकि यतना को संयम का सार बताया गया है। उसके पश्चात् १६ वें द्वार में 'भिक्षागमन विधि' का निरूपण है। यद्यपि 'उपयोग विधि' में भिक्षाविधि का अन्तर्भाव हो जाता है किन्तु इस विधान में और अधिक सावधानी रखनी होती है, साथ ही शरीर निर्वहन के लिए यह अपरिहार्य कृत्य होने से इस विधि की पृथक रूप से विवेचना की है। तदनन्तर १७ वें एवं १८ वें द्वार में 'मण्डलीतप विधि' और 'उपस्थापना विधि' की चर्चा की है। जब श्रमण दीक्षा पालन करने में पूर्ण रूप से योग्य और सक्षम हो जाता है, केशचन, भिक्षागमन आदि समस्त प्रकार की कठिनाईयों को भलीभांति सहन करने में समर्थ बन जाता है तब मंडली में अर्थात् सबके साथ में स्वाध्याय- प्रतिक्रमण -भोजनादि करने हेतु उसे तप पूर्वक विशेष अनुष्ठान करवाकर मण्डली के साथ समस्त क्रियाकलाप करने की अनुमति दी जाती है। फिर आवश्यकसूत्र और दशवैकालिकसूत्र का तप पूर्वक अध्ययन करवाकर उसकी उपस्थापना की जाती है। १६ वें द्वार में 'योगोद्वहन विधि' की चर्चा है क्योंकि उपस्थापना होने के बाद साधु को सूत्रों का अध्ययन करना चाहिये और यह सूत्राध्ययन योगोद्वहन के बिना नहीं किया जाता है। २० वें द्वार में कल्पत्रेपाविधि का निरूपण किया गया है, क्योंकि योगवहन कल्पत्रेप समाचारी पूर्वक ही किये जाते हैं। २१ वें द्वार में 'आगम वाचना विधि' को विदित किया है, क्योंकि जब श्रमण अंग-उपांग-छेद-मूल सूत्रों का सम्यक् ज्ञाता बन जाता है तब उसे अन्य शिष्यों को आगम सूत्रों की वाचना देनी चाहिये इसलिए 'आगम वाचना विधि' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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