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344/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
योग्य या अयोग्य शिष्य लक्षण ३. शिक्षा-प्राप्ति करने के योग्य या अयोग्य के लक्षण ४. प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध ५. दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध। ६. अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि ७. औद्देशिक आहार के कल्प्य अकल्प्य सम्बन्धी निर्देश ८. श्रुतग्रहण के लिए अन्य गण में जाने की विधि ६. सांभोगिक-व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने की विधि १०. आचार्य आदि को वाचना देने के लिए अन्यगण में जाने सम्बन्धी विधि-निषेध ११. कलह करने वाले भिक्षु से सम्बन्ध रखने सम्बन्धी विधि-निषेध। १२. परिहार-कल्पस्थित भिक्षु की वैयावृत्य करने का विधान। १३. महानदी पार करने के विधि-निषेध। ११. घास के ढ़की हुई छत वाले उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध इत्यादि। पाँचवा उद्देशक - इस उद्देशक में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी दस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित बयालीस सूत्र हैं। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रथम चार सूत्रों में ग्रन्थकार ने बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उस हस्तस्पर्श को सुखजनक माने तो उसे अब्रह्म का दण्ड आता है इसी प्रकार साध्वी के लिए भी उपर्युक्त अवस्था में गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। • अधिकरण विषयक विधान में कहा है कि यदि कोई भिक्ष क्लेश को शान्त किये बिना ही अन्य गण में जाकर मिल जाये एवं उस गण के आचार्य को यह मालूम हो जाये कि यह साधु कलह करके आया हुआ है तो उसे छेद प्रायश्चित्त देना चाहिये और समझा-बुझाकर पुनः अपने गण में भेज देना चाहिये। उद्गार सत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थ-निन्थियों को डकार (उद्गार) आदि आने पर थूक कर मुख साफ कर लेने से रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता है। आहार विषयक सूत्र में संसक्त आहार के खाने एवं परठने का सचित्त जलबिन्दु से युक्त आहार को खाने एवं परठने का विधान बताया है। ब्रह्मचर्यरक्षा विषयक सूत्रों में बताया गया हैं कि पेशाब आदि करते समय साधु-साध्वी की किसी इन्द्रिय का पशु-पक्षी से स्पर्श हो जायें
और वह उसे सुखदायी माने तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है। इस अधिकार में निर्ग्रन्थिनी को अकेला रहना, नग्न रहना, पात्र रहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटासन-वीरासन में बैठकर कायोत्सर्ग करना, पीठ वाले आसन पर बैठना-सोना, नालयुक्त अलाबु पात्र रखना आदि का निषेध किया गया है।
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