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542/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
करते थे, इस कारण उनके द्वारा विरचित अनेक स्तोत्र-स्तव-कल्पादि उपलब्ध होते हैं। उनमें एक रचना 'बृहत्हींकारकल्पविवरण' नामक है। उनके द्वारा रचित एवं उपलब्ध मंत्र-विद्यादि विषयक कृतियों का नामनिर्देश इस प्रकार ज्ञातव्य है - १. पद्मावती चतुष्पदी २. विजय-मंत्र कल्प ३. उपसर्गहरस्तोत्र वृत्ति ४. पंचपरमेष्ठिमहामंत्र स्तवन ५. शारदाष्टक ६. गौतम- स्तोत्र ७. वर्धमानविद्याकल्प ८. सूरिमंत्राम्नायकल्प आदि।
इस कल्प के विषय में कहा जाता है कि गणधर प्रणीत अंगसूत्रों के बारहवें दृष्टिवाद नामक सूत्र के अन्तर्गत दशवें विद्याप्रवाद नामक पूर्व में मंत्र-विद्या का आलेख था। सभी पूर्व नष्ट होने के साथ-साथ विद्याप्रवाद नाम का पूर्व भी नष्ट हो गया। किन्तु मंत्रविद्या अभी भी प्रचलित है। यह मंत्रविद्या पूर्व उद्धृत हैं या अन्य स्थान से स्वीकृत की गई है, यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है? कुछ भी हो- वज्रस्वामी, पादलिप्ताचार्य, हरिभद्रसूरि, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य, जिनदत्तसूरि, जिनप्रभसूरि आदि कई आचार्यों एवं सन्तपुरुषों ने संयम शक्ति और प्रखर विद्वत्ता के साथ इन मांत्रिक विद्याओं के प्रभाव से खूब शासनोन्नति की हैं यह सर्वविदित है।
यह कृति' संस्कृत की गद्य एवं पद्य मिश्रित शैली में रची गई है। इसमें प्रतिपादित विधि-विधान या तत्संबंधी चर्चा इस प्रकार है - इसमें सर्वप्रथम 'ह्रींकार' शब्द की साधना विधि के सात द्वार कहे हैं १. पूजा २. ध्यान ३. वर्ण ४. होम ५. जाप ६. मंत्र और ७. क्रिया।।
___ यहाँ ध्यातव्य है कि 'ही' शब्द में पंचपरमेष्ठी के पाँच वर्षों और चौबीस तीर्थंकरों की कल्पना की जाती है। अतः 'ही' शब्द की साधना पंचवर्ण के आधार पर किये जाने का निर्देश है। इसमें पूर्वोक्त द्वारों की अपेक्षा से क्रमशः ये विधि-विधान कहे हैं- १. हींकार शब्द की आलेखनविधि २. 'ह्रींकार' की सामान्य साधनाविधि और उसका फल ४. ह्रींकार यन्त्र की पूजा विधि ५. ह्रींकार (मायाबीज) मंत्र की आराधना विधि ६. परमेष्ठी बीजपंचक स्थापनाविधि ७. परमेष्ठिचक्र-शुक्लमायाबीजसाधनाविधि ८. परमेष्ठिचक्र-आरक्तमायाबीजसाधनाविधि ६. परमेष्ठिचक्र-पीतमायाबीजसाधनाविधि १०. परमेष्ठिचक्र-नीलमायाबीजसाधनाविधि ११. परमेष्ठिचक्र-कृष्णमायाबीजसाधनाविधि १२. परमेष्ठिचक्र-शुक्लादि मायाबीज की साधनाविधि का फल १३. चौरभयरक्षाविधि १४. वश्ययंत्रविधि १५. प्रथम शुक्लबीज ध्यानविधि १६. द्वितीय (आकर्षणार्थ) रक्तबीज ध्यानविधि १७. तृतीय
' (क) इस कृति का संशोधन गणि प्रीतिविजयजी ने किया है। (ख) यह कृति शा. डाह्याभाई मोहोकमलाल, पांजरापोल, अहमदाबाद से प्रकाशित है।
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