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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/217 माना गया है। यहाँ ध्यातव्य है कि विशिष्ट धार्मिक होने के पहले साधारण गृहस्थ और अच्छा मानव बनने की अधिक जरूरत है। अच्छे-परोपकारी या सद्गृहस्थ बनने के लिए जिन गुणों की अत्यंत आवश्यकता है उनका विस्तृत वर्णन धर्मबिन्दु के प्रथम अध्याय में किया गया है इसके अतिरिक्त व्यापार किस प्रकार करना चाहिए, विवाह कब करना चाहिये, विवाह किसके साथ करना चाहिए, वस्त्र कैसे पहनने चाहिए, क्या खाना चाहिए, किस प्रकार खाना चाहिए, घर कहाँ बनाना चाहिए, माता-पिता की सेवा किस प्रकार करनी चाहिए इत्यादि अनेक जीवन उपयोगी बिन्दु इस ग्रन्थ में पढ़ने को मिलते हैं। वस्तुतः यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में ५८ सूत्र, दूसरे अध्याय में ७५, तीसरे में ६३, चौथे में ४३, पाँचवे में ६८, छठे में ७६, सातवें में ३८, आठवें अध्याय में ६१ इनकी कुल सूत्रसंख्या ५४२ हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में उपलब्ध विवरण संक्षेप में इस प्रकार है - प्रथम अध्याय का नाम 'गृहस्थसामान्यधर्मविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में धर्म की व्याख्या करके धर्म का स्वरूप धर्म का फल और धर्म के भेद बताये गये हैं। उनमें कहा है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं सहित किया सद्गुष्ठान् ही धर्म है। जिनमें ये चार भावनाएँ न हों वह धर्म के लिए अयोग्य कहा गया है। इसमें १. गृहस्थधर्म और २. यतिधर्म ये दो भेद किये गये हैं। पुनः गृहस्थधर्म के भी १. सामान्य गृहस्थधर्म और २. विशेष गृहस्थधर्म ऐसे दो भेद किये हैं। प्रथम अध्याय में सामान्य गृहस्थधर्म विधि का उल्लेख करते हुए व्यापार, विवाह, निवास, भोजन, परिधान, अतिथि सत्कार आदि को लेकर ३५ मार्गानुसारी गुणों पर चर्चा की गई हैं। जैसे- श्रावक को न्यायोपार्जित द्रव्य का संग्रह करना चाहिये, समानधर्मी कुटुम्ब में विवाह करना चाहिए, स्वधर्मी लोगों के समीप बने हुए घरों में रहना चाहिए, भोजन सात्त्विक करना चाहिए, शक्ति के अनुसार व्यय करना चाहिए, किसी को उद्वेग हो वैसी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए, माता-पिता की भक्ति करनी चाहिए इत्यादि सत्यमार्ग का अनुसरण और गृहस्थ धर्म का सम्यक् परिपालन कर सकें उस प्रकार के गुणों की वर्णन किया है। द्वितीय अध्याय का नाम 'गृहस्थदेशनाविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में उपदेशक कैसा होना चाहिए और उपदेशक को द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव का विचार करके किस जीव को किस प्रकार का उपदेश देना चाहिये इसका सुंदर और बोधक वर्णन किया गया है। उपदेष्टा जिस विषय में उपदेश दे रहा हो- वे गुण तो स्वयं में होने ही चाहिए। प्रसंगोपात्त ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का वर्णन किया है। तदनन्तर यह उपदेश दिया गया है कि पुण्य-फल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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