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________________ 218/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य रूप में देवलोक की समृद्धि, शुद्ध कुल में जन्म, अनुकूल सामग्री आदि मिलती है तथा पाप फल के रूप में नरक का दुःख, चांडाल आदि नीच कुल में जन्म इत्यादि होता है। अन्त में बारह भावनाओं का वर्णन करते हुए यह बतलाया गया है कि भावनाएँ राग-द्वेष का क्षय करने में मुख्य कारणभूत हैं। अतः इन भावनाओं का चिन्तन प्रतिदिन करना चाहिए। तृतीय अध्याय का नाम 'गृहस्थविशेषदेशनाविधि' है। इसमें निर्देश किया है कि पूर्वोक्त धर्म का सामान्य स्वरूप समझने से वैराग्य आ जाये और व्रत ग्रहण करने की इच्छा हो जाये तो किस प्रकार व्रत प्रदान करना चाहिए इस सम्बन्ध में 'धर्म प्रदान विधि' कही गई है। उसके बाद बाहरव्रतों का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है इन व्रतों का सम्यक् परिपालन हो सके- उस निमित्त श्रावक की दिनचर्या पर भी संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। चतर्थ अध्याय का नाम 'यतिसामान्यदेशनाविधि' है। जिस गृहस्थ ने विशेष धर्म का विधिपूर्वक पालन किया है वह गृहस्थ दीक्षाधर्म अंगीकर करने के लिए उपस्थित हो जाये तो उसमें १६ गुण कौन से होने चाहिए तथा दीक्षा देने वाले गुरु में १५ गुण कौन से होने चाहिए? इसका अन्य-अन्य आचार्यों के अभिप्राय पूर्वक वर्णन किया गया है। इसके साथ यति सम्बन्धी देशनाविधि में यह भी कहा है कि दीक्षाग्राही को माता-पिता एवं ज्येष्ठ कुटुम्बियों की अनुमति लेनी चाहिये। दीक्षा के लिए मुहूर्त आदि देखना चाहिये। दीक्षा के बाद नवदीक्षित को कैसे रहना चाहिये इसका भी वर्णन किया है। इसमें मुख्यतः प्रव्रज्यादान विधि, प्रव्रज्याग्रहण विधि, प्रव्राजकगतो विधि ये तीन विषय उल्लिखित हुए हैं। पंचम अध्याय का नाम 'यतिधर्मदेशनाविधि' है। इसमें यति धर्म के दो भेद किये गये हैं १. सापेक्ष यतिधर्म और २. निरेपक्ष यतिधर्म। सापेक्ष यतिधर्म का पालन करने वाले मुनियों को भिक्षा किस प्रकार ग्रहण करनी चाहिए? किस प्रकार की प्रवृत्ति करनी चाहिए? जिससे किसी आत्मा को पीड़ा न हो तथा उन्हें विकथा आदि का त्याग करना चाहिये इत्यादि का वर्णन किया है। इसके साथ ही दीक्षा लेने के लिए कितने प्रकार के पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक अयोग्य हैं? शीलरक्षा के लिए किन नववाड़ों का परिपालन करना चाहिए? संलेखना का क्या स्वरूप है? की चर्चा की गई है। अन्त में 'निरपेक्ष यतिधर्म' का स्वरूप कहा गया है। षष्ठम अध्याय का नाम 'यतिधर्मविशेषदेशनाविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में यह प्रतिपादित है कि सापेक्ष यतिधर्म और निरपेक्ष यतिधर्म का पालन करने के लिए कौन-कौन से गुण आवश्यक हैं और शासन की स्थिरता के लिए तथा जैन समाज ज्ञानार्जन के क्षेत्र में आगे बढ़ता रहे उस अपेक्षा से सापेक्ष यतिधर्म की विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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