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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास /219 आवश्यकता कैसे हैं? इसके साथ ही भावना मोक्ष का परम कारण है, द्रव्य और भाव से भगवंत की भक्ति करनी चाहिये, चारित्र ग्रहण करने के बाद भाव स्थिर रहे, उसके लिए साधुओं को कौन-कौन सी भावना का चिन्तन करना चाहिये और कैसा आचरण करना चाहिये इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। सप्तम अध्याय का नाम 'धर्मफलदेशनाविधि' है। इसमें धर्मफल के दो प्रकार कहे हैं १. अनंतर फल और २. परंपरा फल। जो फल तुरन्त मिलता हो वह अनंतर फल है और जो फल अन्य उत्कृष्ट फल का कारण हो, वह उत्कृष्ट फल भी तीसरे फल का कारण हो वह परंपरा फल है। आगे शुभ परिणाम ही मोक्ष का उत्तमोत्तम कारण है ऐसा प्रतिपादन किया गया है। अन्त में यह कहा गया हैं कि इस जगत् में जो कुछ शुभ मिलता है वह सभी धर्म के प्रभाव से मिलता है। इसलिए मनुष्य जैसा उत्तमभव जो प्राप्त हुआ है इसमें धर्म की साधना करना यही इस प्रकरण का सार है। अष्टम अध्याय का नाम 'धर्मफलविशेषदेशनाविधि' है। इस अध्याय में उन्हीं विषयों का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है जो विषय सातवें अध्याय में चर्चित हुए हैं। इसमें कहा है कि जगत हितकारी तीर्थकर पद की प्राप्ति भी धर्माभ्यास से ही होती है तब सामान्य वस्तुओं के लाभ का तो कहना ही क्या है? इसमें तीर्थंकर का माहात्म्य प्रतिपादित हुआ है तथा मोक्षप्राप्ति में बाधक तत्त्व राग, द्वेष, और मोह इन तीन शत्रुओं का वर्णन करके इनको जीतने के उपाय भी दिखाये गये हैं। आगे मुक्तजीवों की स्थिति कैसी होती हैं और उन जीवों को परमानंद की प्राप्ति किससे होती हैं तथा शक्ल ध्यान से जीव किस प्रकार ऊँचा उठता है, इत्यादि का विवेचन किया गया है। __इस ग्रन्थ के समग्र विवेचन से फलित होता है कि इसमें गृहस्थ के सामान्य गुण अर्थात् मार्गानुसारी के गुणों से लेकर तीर्थंकर पद की प्राप्ति पर्यन्त के सभी उपाय क्रमशः बताये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ अनेक आत्माओं के आत्म कल्याणमार्ग में सहायक भूत बनने जैसा है। इसमें गृहस्थ और साधु की कर्त्तव्य विधियों का सुंदर निरूपण हुआ है। इस वजह से यह ग्रन्थ विशेष लोकप्रिय बना है। इसमें प्रारंभ के तीन अध्याय श्रावक संबंधी है और बाद के पाँच अध्याय साधुओं के कर्त्तव्य तथा अन्तिम अध्याय तीर्थकर पद की प्राप्ति के उपायों का सूचन करने वाला है। मूलतः यह उपदेशपरक ग्रन्थ है। हमें जो ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है वह सात परिशिष्ट विभागों से युक्त है। टीका- धर्मबिन्दु ग्रन्थ पर मुनिचंद्रसूरि ने ३००० श्लोक परिमाण वृत्ति रची है इस वृत्ति का रचनाकाल वि.सं. ११८१ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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