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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/125
अष्टाहिकाव्याख्यान, होलिकाव्याख्यान, श्रीपालचरित्र- वृत्ति, प्रतिक्रमणहेतवः, संग्रहणी, सपर्याय आदि, स्तोत्र स्तवनादि तथा मरुगुर्जर में लिखी गई संख्याबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं। सूत्रकृतांगसूत्र
___ अंग आगमों में 'सूत्रकृतांगसूत्र' का दूसरा स्थान है। यह आचारप्रधान और दार्शनिक ग्रन्थ है। सूत्रकृत् में दो शब्द हैं- सूत्र और कृत्। जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा गया है। इस आगम में सूचनात्मक तत्त्व की प्रमुखता है अतः इसका नाम सूत्रकृत् है। इसका वर्तमान में जो संस्करण उपलब्ध है उसमें सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में छब्बीस एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तैंतीस-तैंतीस उद्देशक हैं। इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना अर्थात् छत्तीस हजार श्लोक परिणाम का है। इस आगम का अधिकांश भाग पद्य में है कुछ भाग गद्य में भी है।
इस आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्व-समय, पर-समय, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आनव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में कथन किया गया है। इसके साथ ही भगवान महावीर के युग में प्रचलित मत-मतान्तरों का वर्णन इसमें विस्तृत रूप से हुआ है। १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानीवादी एवं ३२ विनयवादी कुल ३६३ मतों की परिचर्चा हुई है तथापि यत्किंचित् विधि-विधान के प्रारम्भिक रूप अवश्य दृष्टिगत होते हैं- जैसे कि 'वैतालीय' नामक दूसरे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में पाप-विरति, परीषह-सहन, अनुकूलपरीषह-सहन आदि की उपदेश- विधि' कही गई है। इसी अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में एकलविहारी मुनिचर्या विधि, सामायिक साधक की आचारविधि, अनुत्तरधर्म और उसकी आराधनाविधि' आदि का निर्देश है। 'धर्म' नामक नौंवे अध्ययन में जिनोक्त श्रमण धर्माचरण क्यों और कैसे करे?', 'मार्ग' नामक ग्यारहवें अध्ययन में भावमार्ग की साधना विधि, 'ग्रन्थ' नामक चौदहवें अध्ययन में गुरुकुलवासी साधु द्वारा शिक्षा ग्रहण विधि, गुरुकुलवासी साधु द्वारा भाषा-प्रयोग की विधि-निषेध इत्यादि का वर्णन है।"
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों में आचारपक्ष एवं विधिपक्ष के कुछ संकेत
' सूत्रकृतांग सू. ६७-१०८ २ वही सू. १२२-१२८, १३०-१३२ ३ वही सू. ४४४-४४६
वही सू. ५८५-६०६
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